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बुधवार, अप्रैल 17, 2024

ब्रह्मी से देवनागरी की लिपि यात्रा

उत्तर भारत की सबसे प्राचीन भाषा जिसके आज लिखित प्रमाण हैं, वह वैदिक संस्कृत थी और इसका प्रमाण है ऋग्वेद जो ईसा से करीब १५०० वर्ष पहले लिखा गया। विशेषज्ञ कहते हैं कि इसे सबसे पहले ब्रह्मी लिपि में लिखा गया। नीचे की तस्वीर में ओडिशा में धौलागिरि की वह चट्टान है जिस पर सम्राट अशोक के संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखे हैं। 

धौलागिरि चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में अंकित है

फ़िर समय के साथ ब्रह्मी से देवनागरी लिपि विकसित हुई। ब्रह्मी से ही मराठी, गुजराती, बंगाली और गुरुमुखी जैसी भारतीय भाषाओं की लिपियाँ बनीं जो देवनागरी से मिलती जुलती है, लेकिन उनमें भिन्नताएँ भी हैं। मैं सोचता था कि भाषाएँ तो यूरोप की भी बहुत भिन्न हैं, जैसे कि अंग्रेज़ी, स्पेनी, फ्राँसिसी, इतालवी, आइरिश, आदि, लेकिन उन सबकी लिपि एक जैसी है, जिसे रोमन वर्णमाला कहते हैं जो लेटिन पर आधारित है।

इसलिए मेरे मन में प्रश्न उठता था कि हमने भारत की भिन्न भाषाओ के लिए एक जैसी देवनागरी लिपि या कोई और लिपि क्यों नहीं अपनाई, उससे हमारी भाषाओं को सीखना शायद कुछ अधिक आसान हो जाता। 

कुछ दिनों से मैं आचार्य चतुर सेन की १९४६ में प्रकाशित हुई किताब "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने अठाहरवीं शताब्दी में भारत में प्रिन्टिन्ग प्रैस के आने के बाद की भारतीय भाषाओं को लिपिबद्ध करने के बारे में जानकारी दी है, जिसमें मेरे प्रश्न का उत्तर था कि हमारी भाषाओं की लिपिया भिन्न क्यों हैं? यह आलेख इसी विषय पर है।

ब्रह्मी और देवनागरी लिपियों की वर्णमाला

सबसे पहले अगर हम स्वरों को देखें तो देवनागरी तथा ब्रह्मी भाषा की लिपि के अंतर देख सकते हैं - 

अ आ - 𑀅 𑀆    इ ई - 𑀇 𑀈    उ ऊ - 𑀉 𑀊   ए ऐ - 𑀏 𑀐    ओ औ - 𑀑 𑀒

अं अः - 𑀅𑀁 𑀅𑀂    ऋ -𑀋

और अब आप इन दो लिपियों में व्यंजनों के स्वरूप तथा अंतर देख सकते हैं -

क ख ग घ ङ  -  𑀓 𑀔 𑀕 𑀖 𑀗       च छ ज झ ञ - 𑀘 𑀙 𑀚 𑀛 𑀜    ट ठ ड ढ ण - 𑀝 𑀞 𑀟 𑀠 𑀡          

त थ द ध न - 𑀢 𑀣 𑀤 𑀥 𑀦          प फ ब भ म - 𑀧 𑀨 𑀩 𑀪 𑀫        य र ल व - 𑀬 𑀭 𑀮 𑀯

श ष स ह - 𑀰 𑀱 𑀲 𑀳

प्रारम्भ में अंग्रेज़ ब्रह्मी लिपि को पिन-मैन (Pin-man) लिपि कहते थे क्योंकि यह माचिस की तीलियों या छोटी डंडियों से बनी आकृतियों जैसी लगती थी। समय के साथ इस लिपी के स्वरूप भी कुछ बदले लेकिन पांचवीं शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य काल तक इसे ब्रह्मी लिपि ही कहते है। नीचे तस्वीर में दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से वह चट्टान जिसपर सम्राट अशोक का संदेश ब्रह्मी लिपि में लिखा है।

दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सम्राट अशोक का ब्रह्मी लिपि में लिखा संदेश
छठी शताब्दी के बाद से ब्रह्मी लिपि के बदलाव अधिक मुखर हुए और उन्हें नये नाम दिये गये। उत्तर भारत में ब्रह्मी से नागरी, सिद्धम तथा शारदा लिपियाँ बनी जबकि दक्षिण भारत में कदम्ब, पल्लव, आदि लिपियाँ बनी।

चूंकि दक्षिण भारत में ग्रंथों को नुकीली कलम से ताड़ के पत्तों पर खरोंच कर लिखने की परम्परा थी, उन पर नागरी की सीधी रेखाओं वाली लिपि से पत्ते कट जाते थे, इसलिए वहाँ गोलाकार लिपियाँ विकसित हुईं जिनमें शब्दों को देवनागरी की तरह ऊपरी रेखा से जोड़ा नहीं जाता था।

बोलचाल की बोली में बदलाव

एक ओर लिपि में बदलाव हो रहे थे, तो दूसरी ओर बोलने वाली भाषा भी बदल रही थी, क्योंकि जन सामान्य को बोलचाल की भाषा में सरलता चाहिये, वह भाषा की कठिन ध्वनियों को और जटिल व्याकरण नियमों की जगह आसान ध्वनियों और सरल व्याकरण को प्राथमिकता देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत में समय के साथ, संस्कृत से लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंष, खड़ी बोली और अन्य बोलियाँ बनी।
 
जब समाज बदलते हैं, और नये ज्ञान से नयी समझ और तकनीकी बदलती है, तो नये औज़ार, अस्त्र, कार्यक्षेत्र, कार्यकौशल, आदि बनते हैं, जिनके लिए भाषाओं को नये शब्द चाहिये। दूसरी ओर, जब सड़कें नहीं हों और यातायात के साधन सीमित हों तो कुछ लोग ही लम्बी यात्राएँ कर पाते हैं। इन दोनों बातों की वजह से, समय के साथ, एक ही भाषा विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न स्वरूप बदल-बदल कर विकसित होती है।
 
इस तरह से उत्तरभारत में प्राकृत भाषा, देश के विभिन्न क्षेत्रों में डिन्गल, पिन्गल, ब्रज, खड़ी बोली, अवधी, मैथिली, भोजपुरी आदि लोकभाषाओं में विकसित हुई। यही नहीं, इनमें से हर लोकभाषा में कुछ-कुछ कोस की दूरी पर कुछ शब्दों में अंतर आ जाते थे और स्थानीय बोलियाँ बन जाती थीं, जैसे कि आज़मगढ़, जौनपुर और सुल्तानपुर, सभी में अवधी बोलते थे लेकिन उनकी अवधी एक जैसी नहीं थी, उसमें कुछ अंतर थे।
 
बीसवीं सदी में दुनिया के बदलने की गति और तेज़ हो गयी। सड़कों और यातायात के साधनों की वृद्धि से लोग अधिक यात्रा करने लगे हैं, और फ़िर, रेडियो-टीवी-फ़िल्म-इंटरनेट-यूट्यूब आदि नये संचार माध्यमों के आविष्कार से, लोगों के बीच दूरियाँ कम होने लगीं, इस वजह भाषाओं की छोटी-मोटी स्थानीय भिन्नताएँ भी लुप्त होने लगीं। आज के बच्चे स्कूल में, उपन्यासों में, फ़िल्मों और टीवी पर जो भाषा सुनते हैं, वही बोलने लगते हैं और अपने घर-परिवार-गांव की बोली को भूलने लगते हैं।
 
भाषा के कुछ बदलाव दो उल्टी दिशाओं में जा रहे हैं। एक ओर भविष्य में नौकरी अच्छी मिले, यह सोच कर हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ी बुलवाने में गौरव महसूस करते हैं इसलिए शहरों के समृ्द्ध परिवारों में बच्चे केवल अंग्रेज़ी पढ़ते-बोलते हैं।
 
दूसरी ओर, यूट्यूब, टिक-टॉक आदि एप्प से छोटे शहरों और गावों में स्थानीय बोलियों के गीत-संगीत-नाटक-शिक्षा-ज्ञान से आय के नये साधन निर्मित हो रहे हैं, जिनसे उन बोलियों के उपयोग को बढ़ावा मिल रहा है।
 
कृत्रिम बुद्धि के अनुवादक की सहायता से आप किसी भी भाषा के लेखन, फ़िल्म, नाटक आदि को आसानी से समझ सकते हैं। गूगल के आटोमेटिक अनुवादक से आप केवल हिंदी, इतालवी, फ्रांसिसी या स्पेनी भाषाओं में ही नहीं, असमिया, भोजपुरी, मैथिली जैसी भाषाओं में अनुवाद कर सकते हैं। आने वाली सदियों में इन सब बदलावों का हमारी बोलियों और भाषाओं पर क्या असर पड़ेगा, यह कहना मुझे कठिन लगता है। 

छपाईखानों की तकनीकी से जुड़े लिपि के बदलाव

आचार्य चतुरसेन अपनी पुस्तक "हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास" में इस विषय पर दिलचस्प जानकारी देते हैं।
 
छापेखाने यानि प्रिन्टिन्ग प्रैस का प्रारम्भिक विकास चीन में हुआ था, लेकिन इसे बड़े पैमाने पर विकसित किया जर्मनी के जोहान गूटनबर्ग ने जिन्होंने १४४८ ई. में पहली बाईबल की किताब छापी। इससे पहले किताबें हस्तलिपि से ही लिखी जाती थीं और केवल एक-दो पन्नों के इश्तहार आदि छापने के लिए आप लकड़ी पर उल्टे शब्द काट कर उस पर स्याही लगा कर उन्हें छाप सकते थे। हस्तलिपि से किताब लिखना और पूरे पन्ने को लकड़ी में काट कर छापना, दोनों मेहनत के काम थे और बहुत मंहगे थे।
 
गूटनबर्ग ने वर्णमाला के हर अक्षर को धातू में बनाया, फ़िर इन अक्षरों को लोहे की प्लेट पर चिपका कर आप एक पृष्ठ की हज़ारों प्रतियाँ छाप सकते थे। उस पृष्ठ को छापने के बाद, उन्हीं अक्षरों को उसी लोहे की प्लेट पर उनकी जगह बदल कर आप दोबारा प्रयोग कर सकते थे और नया पृष्ठ छाप सकते थे। छपाई प्रेस के जगह-बदलने वाले अक्षरों से किताबों की छपाई में क्रांति आ गई।
 
इसी तकनीक की प्रेरणा से बाद में टाईप-राईटर का भी आविष्कार हुआ। एक बार यह छपाई वाले अक्षर बने तो यूरोप के भिन्न देशों ने उन्हें अपना लिया और सबने रोमन वर्णमाला में अपनी भाषाओं के ग्रंथों को छापना शुरु किया। सबसे पहले और सबसे अधिक छपाई बाईबल ग्रंथ की हुई। इस तरह से सबकी भाषाएँ अलग रहीं लेकिन लिपि एक जैसी हो गयी।
 
भारत में हर क्षेत्र में अलग बोलियाँ थीं जिन्हें लोग हस्तलिपि से लिखते थे। इनकी लिपि जो नागरी पर आधारित थी, समय के साथ हर क्षेत्र में कुछ भिन्न तरीके से विकसित हुई। अठाहरवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में ईसाई मिशनरी बाईबल को स्थानीय भाषाओं में छापना चाहते थे। उन्होंने पहले सोचा कि हर भारतीय भाषा को रोमन वर्णमाला में ही छापा जाये, ताकि नये अक्षर न बनाने पड़ें, लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली, क्योंकि भारतीय भाषाओं में ध्वनियाँ अधिक थीं जिनके लिए रोमन वर्णमाला में लिखे शब्दों के अर्थ समझना कठिन था। तब उन्होंने हर क्षेत्र में स्थानीय हस्तलिपि को ले कर उसके लिए अक्षर बनाये, इस तरह से उनकी किताबें स्थानीय भाषाओं में छपीं। भारत की विभिन्न भाषाओं में अक्षर बनाने का काम कठिन था और इसमें करीब सौ/डेढ़ सौ साल लगे। इसका यह नतीजा हुआ कि हमारे हर क्षेत्र की हस्तलिपियों पर आधारित भिन्न लिपियाँ विकसित हुईं।
 
बाद में जब विभिन्न लिपियों की कठिनाईयाँ समझ में आयीं तब उनके एकीकरण, यानि भारत की हर भाषा को एक लिपि में लिखा जाये, की कई कोशिशें हुईं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। लोगों को एक बार जिस लिपि में अपनी भाषा पढ़ने की आदत पड़ी, वह उसे बदलना नहीं चाहते थे।

आचार्य चतुर सेन देवनागरी लिपि की छपाई की कुछ अन्य कठिनाईयों पर भी विस्तार से बताते हैं, विषेशकर मात्राओं और संयुक्ताक्षरों की छपाई से जुड़ी कठिनाईयाँ, जिनके लिए विभिन्न उपाय खोजे गये लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली या सीमित सफलता मिली। उनकी यह किताब पीडीएफ में इंटरनेट पर उपलब्ध है।

अंत में

आचार्य चतुरसेन का भाषा और साहित्य का इतिहास भारत की स्वतंत्रता से कुछ पहले तक की कहानी कहता है। उसे पढ़ते समय मुझे पिछले तीस वर्ष की इंटरनेट पर देवनागरी और अन्य भारतीय भाषाएँ लिखने से जुड़ी बातों की याद आ रही थी।
 
१९९० के दशक में जब इंटरनेट फ़ैलने लगा तो प्रारम्भ में हर वेबसाईट के अपने फोन्ट होते थे। मैंने १९९४ में अमरीका में बोस्टन के संग्रहालय में इंटरनेट क्या होता है वह देखा, तो इटली में घर लौट कर तुरंत इंटरनेट का कनेक्शन ले लिया। तब इंटरनेट में देवनागरी में कुछ नहीं मिलता था।
 
सन् २००० के आसपास कम्पयूटर पर इक्का-दुक्का देवनागरी दिखने लगी लेकिन तब देवनागरी के लिए कृतिदेव, मंगल आदि फोन्ट का प्रयोग होता था। उनकी कठिनाई थी कि अगर आप के कम्पयूटर पर वह वाला फोन्ट नहीं है तो आप उसे नहीं पढ़ सकते थे, आप को हर जगह केवल चकौर डिब्बे दिखते थे।
 
तब रोमन वर्णमाला के युनिकोड के फोन्ट ऐसे बनाये गये थे कि उन्हें कोई भी कम्पयूटर समझ सकता था। हम पूछते थे कि हिंदी का युनीकोड कब आयेगा। सबसे पहले हिंदी को युनीकोड में लिखने के लिए ASCII कोड आया लेकिन एक-एक अक्षर के लिए कोड नम्बर लिखना बहुत कठिन काम था।

जहाँ तक मुझे याद है, मैं २००३ तक शूशा फोंट से लिखता था। उस समय सुनते थे कि युनिकोड के हिंदी फोन्ट बन रहे थे। शायद यह काम २००४-०५ के आसपास पूरा हुआ। शुरु में जब यनिकोड के फोन्ट बन गये तब भी यह दिक्कत थी कि अंग्रेज़ी कीबोर्ड से उन्हें कैसे लिखा जाये, इसके सोफ्टवेयर को प्रयोग करना आसान नहीं था।
 
मैंने युनिकोड के रघू फोन्ट का उपयोग जून २००५ में अपना ब्लाग बना कर शुरु किया। आप चाहें तो २००५ की मेरी उस ब्लोगपोस्ट में युनीकोड उपलब्धी के बारे में मेरी खुशी के बारे में पढ़ सकते हैं। उन दिनों में युनीकोड में लिखना भी आसान नहीं था, उन प्रारम्भिक कठिनाईयों के बारे में पढ़ सकते हैं।
 
जब भारत से मेरे इंटरनेट के मित्र पंकज ने मुझे "तख्ती" प्रोग्राम के बारे में बताया। उन दिनों में हिंदी में ब्लाग लिखने वालों का हमारा गुट था जिसमें कई इन्फोरमेशन तकनीकी के विशेषज्ञ थे, जो हम सब को सलाह देते थे। अगस्त २००५ में अनूप शुक्ला ने अनुगूँज नाम का ब्लाग बनाया था जिसमें हम सब चिट्ठा लेखक उनकी दी गयी थीम पर आलेख लिखते थे। मार्च २००६ में हमारे ब्लाग साथी देवाषीश ने "द एशियन एज" अखबार में आलेख में हिंदी और भारतीय चिट्ठाजगत के बारे में आलेख लिखा था।
 
करीब दो साल पहले तक, मैं अपना सारा हिंदी लेखन उसी "तख्ती" पर करता था, और वहाँ से कॉपी-पेस्ट करके हर जगह चेप देता था। इतने साल तक बहुत कोशिश करने के बाद भी विन्डोज पर हिंदी लेखन का कीबोर्ड याद करना मुझे कठिन लगता था। बहुत सालों तक मैंने भारत में हिंदी का कम्पयूटर कीबोर्ड खरीदने की कोशिश की लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। क्या मालूम अब वह आसान हुआ है नहीं?
 
दो साल पहले, २०२१ में पुराने ब्लागर साथी रवि रतलामी, जो अब नहीं रहे, उनकी सलाह से मुझे लीनक्स पर हिंदी लिखने के लिए "का-पा-गा" सोफ्टवेयर मिला जिसे मैंने अंग्रेज़ी कीबोर्ड पर लिखना आसानी से सीख लिया, तब जा कर मेरा जीवन आसान हुआ।
 
लेकिन आज भी अगर विन्डोज़ वाला कम्पयूटर हो, जैसे कि यात्राओं में लैपटॉप का प्रयोग करना हो, तो अभी भी "तख्ती" पर ही लिखता हूँ, क्योंकि उनका हिंदी कीबोर्ड मुझे कठिन लगता है। अगर आज कोई हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास लिखे तो उसे इन सब बदलावों के बारे में भी जानकारी होनी चाहिये।

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मंगलवार, मार्च 26, 2024

एक बार फ़िर २५ मार्च की होली

२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था।

उन दिनों वह एंडियन एक्सप्रेस की अंग्रेज़ी की साप्ताहिक पत्रिका एवरीमैन के लिए काम कर रहे थे, और सुबह जब ड्राईवर उन्हें हवाई अड्डे ले जाने आया था तब तक वह अपनी लम्बी अंतिम यात्रा के लिए निकल चुके थे। उस समय वह ४७ साल के थे।

कल, एक बार फ़िर, २५ मार्च की होली थी। कल जब होली की बात हो रही थी तब मुझे वह रात याद आई थी, उनकी उखड़ती हुई साँस की आवाज़ और साथ में बैठी माँ, उन्हें पुकारती हुईं, उनकी छाती को मलती हुई।

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परिवार की तस्वीर - यह एक तस्वीर है जिसमें हम सब लोग हैं, दादी, पापा, मम्मी और हम तीनों। कुछ माह पहले मेरे बेटे ने किसी सोफ्टवैर से इसमें रंग भर दिये थे। यह उस साल की है जब नेहरू जी की मृत्यु हुई थी, और इसे मेरठ में छिपीटैंक के एक स्टूडियो में खींचा गया था।

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पापा अगर अब होते तो ९७ साल के होते। मन ही मन में उनसे मेरी बातचीत चलती रहती है। बहुत दुनिया घूमी और भिन्न विचारधाराएँ देशों को कहाँ ले जाती है, करीब से देखने का मौका मिला। जीवन में अलग-अलग सोच वाले लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला, उनके आदर्शों और सोच के बारे में मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच भी बनी।

जब इसके बारे में सोचता हूँ तो उनकी कमी महसूस होती है - मैं मन में उनसे अपनी सोच की बात कहता हूँ लेकिन उनका उत्तर नहीं मिलता। मैं सत्तर साल का हो रहा हूँ लेकिन स्मृतियों वाले पापा अभी भी ४७ साल पर ही रुके हैं, तो मैं उन्हें कहता हूँ कि पापा मेरे जीवन का अनुभव आप से अधिक हो गया। 

अक्सर जब कोई अच्छी किताब पढ़ता हूँ तब भी मन में उनसे बात होती है, सोचता हूँ कि उन्हें वह किताब अच्छी लगती या नहीं? शायद सभी बच्चे ऐसा ही करते हैं, हमारी उम्र चाहे कितनी भी हो जाये, मन ही मन अपने माता-पिता से बातें करना जीवन भर चलता रहता है?

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पापा की २३वीं बरसी पर, १९९८ में माँ ने अपनी डायरी में लिखा था -

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है। कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र। हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं। एक बार जानकीदेवी कॉलेज से निकल रही थी तो सविता मिली थी। तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही, उसी तिथि और उसी समय में ही, कश्यप भी नहीं रहा था। वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा। क्या कहती उससे। अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने। कई बार मन में आया कि उसके स्कूल, बाल भारती में , जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की।

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता। ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था। फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी। मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने। जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है।

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरजप्रकाश और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा। और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया। सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ।

पापा के उस मित्र कश्पी (कश्यप भार्गव) और दिल्ली के बालभारती स्कूल में पढ़ाने वाली उनकी पत्नी सविता भार्गव से कभी कहीं मिलने की मुझे कोई याद नहीं, न ही कभी उनके बच्चों से कभी कोई परिचय हुआ। जब भी माँ कश्पी की बात करती थी तो मन में यही प्रश्न उठता था कि वह पापा के इतने अच्छे दोस्त थे तो हमारी कभी उनसे मुलाकात या जान पहचान कैसे नहीं हुई?

उनके बच्चे कहाँ होंगे? मन में आता है कि उनसे मिलना अच्छा लगेगा।

***

जब पापा गुज़रे थे तब मैं मेडिकल कॉलेज के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था। उन दिनों में पापा जयप्रकाश नारायण जी के साथ बिहार में बहुत समय बिता रहे थे, वे बिहार छात्र आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति वाले दिन थे। जे.पी. के कहने से ही इंडियन एक्सप्रेस के गुएनका जी ने मेरी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई के लिए छात्रवृति स्वीकार कर ली थी, वरना शायद डॉक्टर बनने का सपना कठिनाई से पूरा होता।

शायद इसीलिए सारा जीवन मन में लगता रहा है कि इंडियन एक्सप्रेस "हमारा अपना" अखबार है। यादें कहाँ से शुरु होती हैं और कहाँ चली जाती हैं!


शुक्रवार, मार्च 22, 2024

ऋग्वेद कथा

गृत्समद आश्रम के प्रमुख ऋषि विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे, जब उन्हें समाचार मिला कि उनसे मिलने उनके बचपन के मित्र विश्वामित्र आश्रम के ऋषि गाथिन आये थे। गृत्समद ऋषि अपने मित्र की आवभगत करने गये, उनसे गले मिले और उन्हें आदर से अपने शिक्षाकक्ष में ले आये, विद्यार्थियों से उनका परिचय कराया, उन्हें बैठने का स्थान दिया, जल और भोजन दिया।

"प्रिय भाई गाथिन, तुम कितने समय के बाद आये, आशा है कि तुम्हारे समुदाय में सब कुशल है", उन्होंने मेहमान से कहा। कुशल-मंगल पूछने और औपचारिकता की बातों के बाद उन्होंने मित्र से पूछा, "इतनी लम्बी यात्रा करके यहाँ आने का क्या कोई विषेश कारण है?"

गाथिन बोले, "पिछली सदियों में आर्यावर्त बहुत बढ़ गया है और बदल गया है। वह समय जब सब राजन मिल कर एक मनु, एक इन्द्र और सप्तऋषियों का चुनाव करते थे, लोग उस समय के बारे में भूलते जा रहे हैं। आर्यावर्त इतना फैल गया है कि इसके बाहर वाले हिस्सों के जनपदों के आश्रमों में कौन से ऋषि हैं और वह कौन से मंत्र पढ़ा रहे हैं, यह सब हमें पता ही नहीं हैं। जब प्रथम मनु का मनवन्तर था और पहले सप्तऋषि मण्डल में वाशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वानदेव तथा शौनक जैसे ऋषि थे, तब ऐसा नहीं था। लेकिन उसके बाद, पिछली सदियों में मनु बदले, मनवन्तर बदले और उनके सप्तऋषि भी बदलते रहे, तो उनका इतिहास कहीं पर संजोया नहीं गया।"

गृत्समद ऋषि बोले, "इतिहास की इन सब बातों से तुम क्यों परेशान हो रहे हो?"

विश्वामित्र बोले, "कुछ समय पहले मेरे कुछ शिष्य दूर देश की यात्रा से लौटे, उन्होंने बताया कि आर्यावर्त के सुदूर राज्यों में ऐसे नये ऋषि हैं जो अपने शिष्यों को नया पढ़ा रहे हैं, उनके कुछ ऐसे मंत्र और ऋचाएँ भी हैं, जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थीं। तबसे मैं इसके बारे में सोच रहा हूँ और तुम्हारी राय जानना चाहता था।"

गृत्समद ऋषि बोले, "यह तो प्रकृति का नियम है, इस जगत में कुछ भी शाश्वत नहीं, फ़िर बदलाव से कैसा भय?"

विश्वामित्र ऋषि बोले, "लेकिन अगर भविष्य के हमारे ऋषि भूल जायेंगे कि हमारी संस्कृति और सभ्यता की नींव किस मूल दर्शन तथा किन विचारों पर खड़ी हुई थी, क्या वह भय की बात नहीं?"

गृत्समद ऋषि मुस्कराये बोले, "कैसे भूल जायेंगे? हमारे शिष्य, हमारे मंत्रों और ऋचाओं के केवल शब्द कंठस्थ नहीं करते, उनके हर सुर के नियम हैं, हर ध्वनि को याद किया जाता है। हमारे शिष्य और हमारी व्यवस्था इतनी सक्षम हैं कि हम अपने मंत्रों को सदियों के बाद भी इस तरह से दोहरा सकते हैं कि उनकी लाखों ध्वनियों में से एक ध्वनि भी नहीं बदलती। हमने पूर्वैतिहासिक आदिकाल के अपने पूर्वजों की उन ऋचाओं को भी सम्भाल कर संजोया है, जिनकी ध्वनियों के अर्थ भी आज कोई नहीं जानता या समझता। अगर हमने उस परम्परा को भी लुप्त नहीं होने दिया, तो फ़िर कैसा भय?"

विश्वामित्र ऋषि भी मुस्कराये, बोले, "मुझे हमारे शिष्यों की क्षमता कम होने का भय नहीं है, बल्कि आर्यावर्त के फैलने का और उस परिधी पर नये की उत्पत्ति की चिंता है, कि कल यही आर्यावर्त इतना बड़ा हो जायेगा कि उसके एक छोर के व्यक्ति, उसके दूसरी छोर के व्यक्ति को नहीं पहचानेंगे और उन्हें नये-पुराने का भेद नहीं मालूम होगा।"

गृत्समद ऋषि के माथे पर बल पड़ गये, बोले, "इसका क्या उपाय है?"

"मेरे विचार में इसका उपाय है कि हम लोग अपने प्रमुख ऋषियों को और आश्रमों के प्रतिनिधियों को एक जगह पर एकत्रित करें", विश्वामित्र ऋषि ने कहा, "और सर्वसम्मत राय से उन मंत्रों तथा ऋचाओं की सूची बनायें जो हमारे पूर्वजों की निधि हैं और भविष्य के लिए जिनकी रक्षा करना महत्वपृ्र्ण है। आजकल हमारे आश्रमों में शब्दों को लिपीबद्ध करने की नयी तकनीक बनी है, कुछ लोग इसे ब्राह्मी लिपी कहते हैं। हमारे जिन मंत्रों तथा ऋचाओं को सर्वसम्मति से स्वीकारा जायेगा, हम उन्हें लिपीबद्ध कर देंगे ताकि भविष्य में उनका निशान रहे। कालांतर में जब नये ऋषि, अपने ध्यान और अंतर्दृष्टि से अगर नये मंत्र और ऋचाओं का ज्ञान जोड़ेंगे, तो भविष्य में उनके लिए नये ग्रंथ बन सकते हैं लेकिन उससे पहले हम अपने पित्रों के पूर्व-ज्ञान को भी सम्भाल कर रखें।"

गृृत्समद ऋषि सोच कर बोले, "बात तो तुम ठीक कह रहे हो। मैंने कृष्णद्वैपायन नाम के एक ऋषि के बारे में सुना है जिन्होंने ब्राह्मी लिपि में कुछ मंत्र लिपिबद्ध किये हैं, हमारे प्राचीन मंत्रों को लिपीबद्ध करने का काम उनके आश्रम को सौंपा जा सकता है।"

***

गृत्समद और विश्वामित्र आश्रम के ऋषियों की इस बातचीत के सात माह के बाद वह सभा आयोजित हुई जिसमें दूर-करीब के सभी आश्रमों के ऋषियों को आमंत्रित किया गया।

सभा में सबसे पहले उन मंत्रों और ऋचाओं पर विचार किया गया जो कि पित्रों की परम्परा से चले आ रहे थे। इन सभी १,९७६ मंत्रों को जो १९१ सूक्तों में विभाजित थे, इन्हें प्राथमिकता देने का निर्णय लिया गया। फ़िर सात प्राचीन आश्रमों के ऋषियों को अपनी-अपनी परम्परा के अन्य महत्वपूर्ण मंत्र और सूक्त बताने के लिए कहा गया। उन सबके योगदानों को विभिन्न मण्डलों में जोड़ा गया। गृत्समद ने दूसरे, गाथिन विश्वामित्र ने तीसरे, वामदेव गौतम ने चौथे, अत्रि ने पाँचवें, वासर्पत्य भारद्वाज ने छठे, वशिष्ठ ने सातवें, एवं अंगीरस व कण्व ने आठवें मण्डल के मंत्र दिये।

अंत में बाकी के ऋषियों से योगदान माँगा गया ताकि तब तक हुए विमर्श में अगर कोई महत्वपूर्ण मंत्र छूट गये थे तो उन्हें भी जोड़ा जा सके। 

सभा के अंत तक, ऋग्वेद तैयार था, जिसमें कुल १०,५७९ मंत्र जोड़े गये, जो १०२८ सूक्तों में विभाजित थे, पूरा ऋग्वेद दस मण्डलों में विभाजित था।

इस सारे विचार-विमर्श से जो मंत्र, सूक्त तथा ऋचाएँ चुनी गयीं थीं, कृष्णद्वैपायन ने अपने शिष्यों की सहायता से उन्हें लिपिबद्ध किया। इस तरह से ऋषियों के पहले ग्रंथ का संकलन पूरा हुआ जिसे ऋग्वेद संहिता का नाम दिया गया। इस महत्वपूर्ण कार्य में योगदान देने वाले ऋषि कृष्णद्वैपायन को वेद-व्यास का नाम मिला।

एक बार प्राचीन ज्ञान, कथाओं और परम्पराओं को लिपिबद्ध करने का काम शुरु हुआ तो वह फ़िर नहीं रुका।

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टिप्पणियाँ

१. यह काल्पनिक कहानी है, हमारे किसी ग्रंथ में ऐसा वर्णन नहीं है। मैंने बहुत वर्षों तक अंतर्राष्ट्रीय सभाओं की रिपोर्टें तैयार की हैं, ऋग्वेद के ढांचे को देख कर मुझे लगा कि वह भी किसी ऐसी ही सभा में हुए विमर्श का नतीजा लगता है। यह कथा इसी विचार का स्वरूप है।

२. इस कहानी को लिखने के लिए मैंने ऋग्वेद से जुड़े कुछ ग्रंथों को पढ़ा और उनसे जानकारी ली, जिनमें प्रमुख था "ऋग्वेद संहिता भाषाभाष्य", जिसके भाष्यकार पंडित जयदेवशर्मा थे, संशोधनकर्ता आचार्य भद्रसेन थे, प्रकाशक आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर, २००८ विक्रम संवत (१९५२ ई.) द्वारा छपा ग्रंथ का तीसरा संस्करण था। इसके अनुसार "वेदों को अनादि काल का ईश्वरीय ज्ञान मानने वालों ऋषियों को वेदमंत्रों के कर्ता नहीं माना, प्रत्युत मंत्रों का दृष्टा स्वीकार किया है ... अग्नि, वायु और आदित्य, तपस्यायुक्त इन तीनों से ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद, यह तीनों प्रकट हुए, इसी का मनु ने अनुवाद किया है ... शांखायन स्रोत सूत्र में ऋग्वेद के प्रथम प्रवक्ता के रूप में अग्नि को स्वीकारा गया है ... इस संकल्प में अग्नि को उपदेष्टा, वायु को उपश्रोता और आदित्य को अनुख्याता स्वीकार किया है ... वैदिक साहित्य में 'ऋषि' शब्द का प्रयोग 'आचार्य' के अर्थ में किया जाता है, यानि इसका अर्थ 'विद्वान-गुरु' है"।

३. हिंदी लेखक और संस्कृत विद्वान डॉ. रांगेय राघव की पुस्तक "प्राचीन ब्राह्मण कहानियाँ" (सन् १९५९ में "किताब महल" द्वारा प्रकाशित) में दी गयी जानकारी के अनुसार - 

"मानव समूहों के अधिनायकों को मनु कहते थे और हर मनु के कार्यकाल को मन्वंतर कहते थे। प्रथम मनु, यानि स्वयंभू मनु का जन्म ब्रह्मा से हुआ। स्वयंभू से पहले ब्रह्मा ने नौ अन्य मानस पुत्रों को जन्म दिया, जो नौ-ब्रह्मा बने, उनके नाम थे - भृगु, पुलस्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वशिष्ठ। राजा उत्तम के पुत्र औतम तीसरे मनु बने थे, स्वरोचिष आठवें मनु थे, सावर्णि नवें मनु थे, ब्रह्मसावर्णि दसें मनु थे, आदि।

हर मन्वंतर में मनु के साथ एक इन्द्र और कुछ देवगण-गुट भी नियुक्त होते थे। इन्द्र की पदवी पाने के लिए यज्ञ और तपस्या आवश्यक होती थी। हर देवगण गुट में १०-१५ व्यक्ति होते थे, जोकि यज्ञयोगी होते थे। जैसे कि औतम मनु के समय सुशान्ति नाम के इन्द्र हुए और उनके साथ पाँच देवगण-गुट थे - स्वधामा, सत्य, शिव, पतर्दन, और वशवर्ती। जबकि रैवत मनु के मन्वंतर में चार देवगण-गुट थे - सुमेधा, भूपति, वेकुंठ और अमिताभ, और हर गुट में चौदह व्यक्ति थे।

हर मन्वंतर में सात ऋषि भी होते थे, जैसे कि औतम मनु के समय गुरु वष्शिठ के सात पुत्रों को सप्तऋषि की पदवी मिली थी।

समाज से दूर वन में रहने वालों में मुनि भी होते थे। यह विवाह नहीं करते थे और तपस्या, पूजा जैसे कामों में जीवन बिताते थे।"

उपरोक्त विवरण से लगता है कि प्राचीन काल में यज्ञों यानि अग्नि पूजा को बहुत महत्व दिया जाता था, और यज्ञ करने वाले को इन्द्र तथा देवगण जैसी पदवी मिलती थी। यानि इन्द्र व देवगण पुजारी होते थे, उनका काम यज्ञ करना था। जबकि ऋषि ज्ञानी व्यक्ति होते थे, वनों में रहते थे, उनका काम आश्रम में शिक्षा देने से जुड़ा था।

मनु, इन्द्र, देवगण, ऋषि, आदि की नियुक्ति एक मन्वंतर के अंतर्गत होती थी, यानि जब मनु बदलते थे तो उनके साथ इन सब अन्य पदों पर नये व्यक्ति नियुक्त होते थे।

जबकि मुनि ऋषियों से भिन्न थे, उनका काम अकेले रहना, तपस्या तथा यज्ञ करना आदि थे (शायद मुनि शब्द मौन से बना है?)। लेकिन नये मनु के साथ नये मुनियों की नियुक्ति नहीं होती थी, मुनि बनने का निर्णय व्यक्तिगत स्तर लिया जाता था।

दूसरी बाद समझ में आती है कि राजा और मनु के पद में अंतर था, और मनु का पद राजा से ऊँचा था। शायद मनु के आधीन बहुत से राजा आते थे, जैसे कि केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार? मनु की क्या ज़िम्मेदारी होती थी, यह बात इस किताब में दिये हुए विवरण से समझ नहीं आती।

तीसरी बात जो इससे समझ आती है, वह है कि मनु, इन्द्र, देवगण और ऋषि, इसी धरती के व्यक्ति होते थे, जिन्हें चुना जाता था या नियुक्त किया जाता था। इस किताब के विवरण में मनु बनने के लिए या इन्द्र बनने के लिए युद्ध करने या जीतने की कोई बात नहीं लिखी है। 

इसमें जिस तरह के प्रशासनिक आयोजन की बातें की गई हैं उनसे यह यायावर समूह का वर्णन नहीं लगता, बल्कि एक जगह पर स्थायी रहने वाला शहरी जनसमूह लगता है। यानि अगर आर्य लोग मध्य एशिया से यात्रा करके भारत में आये थे, तो जब ऋग्वेद लिपिवद्ध किया गया, तब तक यह लोग उनके वंशज थे जो पीढ़ियों से एक स्थान पर रहते थॆे, जहाँ इन्होंने राज्य और शहर बनाये थे।

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मंगलवार, मार्च 05, 2024

१८५७ एवं भारत के लोकगीत

अगर लोकगीतों की बात करें तो अक्सर लोग सोचते हैं कि हम मनोरंजन तथा संस्कृति की बात कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज में लोकगीतों का ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। जब तक भारत के अधिकांश लोग अनपढ़ थे, तब तक लोकगीतों के माध्यम से ही धर्म और इतिहास की बातें जनसाधारण तक पहुँचती थीं। पिछले कुछ दशकों में, नई तकनीकी व नये संचार माध्यमों के साथ-साथ साक्षरता भी बढ़ी है, इसलिए लोकगीतों के महत्व में बदलाव आया है।

इस आलेख में उत्तरी भारत की लुप्त होती हुई लोक-गीत परम्परा की कुछ चर्चा है, विषेशकर १८५७ के अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध हुए विद्रोह-युद्ध से जुड़े हुए लोकगीतों की बातें हैं।

यह आलेख राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा की सन् १९९७ की फिल्म "१८५७ के लोकगीत" पर आधारित है। अरुण ने इस फिल्म को भारत की स्वतंत्रता की पच्चासवीं वर्षगांठ के संदर्भ में बनाया था। इस फिल्म की अधिकतर शूटिन्ग राजस्थान, उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश के बुंदेलखंडी क्षेत्रों तथा बिहार में की गई थी और इसे दूरदर्शन पर दिखाया गया था। 

इस फिल्म को बनाने में बुंदेलखंडी लोक संस्कृति के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त (१९३१-२००३) और राजस्थानी लोगसंगीत के विशेषज्ञ पद्मश्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने विषेश योगदान दिया था - नीचे के इस पहले वीडियो में कोमल कोठारी जी फिल्म के महत्व के बारे में बताते हैं:

यह लोकगीत खड़ी बोली, राजस्थानी, बुंदेलखंडी, मगही, भोजपुरी, उर्दू तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में गाये जाते थे। इस तरह की कुछ कविताएँ और १८५७ के लोकगीतों से सम्बंधित अन्य जानकारी, आप को डॉ. सुरेन्द्र सिंह पोखरण की वैबसाईट "क्रांति १८५७", सुनील कुमार यादव का आलेख,  समालोचन पर मैनेजर पाण्डेय का आलेख, डॉ. महिपाल सिंह राठौड़ का आलेख, आदि में भी मिल सकती है।

मेरा यह आलेख उपरोक्त आलेखों से थोड़ा सा भिन्न है क्योंकि इसमें आप अरुण चढ़्ढ़ा की फिल्म से ऐसे ही कुछ गीतों के अंशों को सुन भी सकते हैं और पुराने लोकगीतों की भाषा का अनुभव कर सकते हैं। (इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, हिंदी और अन्य उत्तर भारतीय भाषाओं की बात की थी, आप उसके बारे में भी पढ़ सकते हैं )

फिल्मकार अरुण चढ़्ढ़ा से बातचीत

नवम्बर २०२२ में मैंने यह फिल्म देखी और अरुण से इसके बारे में जानकारी पूछी थी (नीचे तस्वीर में २०१२ में भारत के उपराष्ट्रपति से फिल्मकार श्री अरुण चढ़्ढ़ा को राष्ट्र पुरस्कार)।

अरुण चढ़्ढ़ा: "उत्तरी भारत में लोकगीत गाने की विभिन्न परम्पराएँ हैं, जिनमें १८५७ के समय पर गाये जाने वाले कुछ गीत आज से कुछ दशक पहले तक सुनने को मिल जाते थे। लेकिन तब भी गाँवों में रेडियो-टीवी-सिनेमा के आने से धीरे-धीरे लोकगायकी के मौके कम होने लगे थे और इनके गायक दूसरे काम खोजने लगे थे। मुझे लगा कि उनकी विभिन्न गायन शैलियों की जानकारी को सिनेमा के माध्यम से बचा कर रखना महत्वपूर्ण है। 

हमने एक बार खोज करनी शुरु की तो बहुत सी जानकारी मिली। जैसे कि बिहार में जगदीशपुर नाम की जगह पर राजा कुँवर सिंह थे, उनकी अंग्रेज़ों से लड़ाई के बारे में बहुत से गीत सुनने को मिले थे। हम लोग उनके गाँव में उनके परिवार के घर पर गये, वहाँ उनके पड़पोते ने अपने पूर्वज कुँवर सिंह की गाथा से जुड़े बहुत से गीतों को एक किताब में जमा किया था।

जैसा कि लोकगीतों में अक्सर होता है, यह कहना कठिन है कि इन लोकगीतों को कब लिखा गया और इन्हें किसने लिखा। अंग्रेज़ों को यह समझ नहीं आये कि इन गीतों में स्वतंत्रता तथा क्रांति की बाते हैं, उसके लिए भी तरीके खोजे गये, जैसे कि इन्हें फाग शैली में होली के समय गाना या बीच में "हर हर बम" जैसी पंक्ति जोड़ देना ताकि सुनने वाले को लगे कि यह शिव जी का भजन है।

मेरी फिल्म में पाराम्परिक लोकगायकों तथा उनके पाराम्परिक वाद्यों को देखा जा सकता है, जोकि धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं, क्योंकि अब वाद्य बनाने वाले और बजाने वाले, दोनों के पास आजकल टीवी और सिनेमा आदि की वजह से काम कम है। दिल्ली हाट और सूरजकुंड मेला जैसी जगहों से उन्हें कुछ काम मिल जाता है लेकिन जब उनके लोक संगीत का आज के जीवित लोक-जीवन से सम्पर्क टूट जाता है, तब उनके पुराने गीतों के शब्द भी खोने लगते हैं, क्योंकि यह गीत मौखिक याद किये जाते हैं, किसी कॉपी-किताब में नहीं लिखे जाते।"

फिल्म में राजस्थान के लोकगीत

फिल्म का पहला भाग राजस्थान के लोकगीतों पर केन्द्रित है। इस भाग में राजस्थान के प्रसिद्ध लोकसंगीत विशेषज्ञ पद्मभूषण-सम्मानित, श्री कोमल कोठारी (१९२९-२००४) ने सूत्रधार के रूप में इन लोकगीतों का परिचय दिया था। शास्त्रीय संगीत की तरह लोकगीतों की गायकी के भी विशिष्ठ शैलियाँ होती हैं और हर शैली के लिए सही लोक-गायक खोजना कठिन था, इस काम में श्री कमल कोठारी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण था।

१८५७ में अंग्रेज़ों से विद्रोह करने वालों में राजस्थान के पाली जिले के आउवा गाँव के शासक ठाकुर कुशाल सिंह भी थे। उन्होंने सितम्बर १८५७ में दो बार अंग्रेज़ी फौज को हराया। जनवरी १८५८ में जब अंग्रेज़ों ने तीसरा हमला किया तब अपनी पराजय होती देख कर कुशाल सिंह अपने राज्य को अपने छोटे भाई को दे कर आउवा से चले गये। आउवा गाँव भिलवाड़ा और जोधपुर के बीच में पड़ता है।  फिल्म में दिखाये गये आउवा के गीत की कुछ शूटिन्ग आउवा गाँव में ठाकुर कुशाल सिंह की हवेली में की गई थी।

इस आउवा विद्रोह से जुड़े कई गीत अरुण की फिल्म के पहले भाग में मिलते हैं। इसी क्षेत्र में १८०८ में अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक ठाकुर का एक अन्य विद्रोह हो चुका था, कुछ गीतों में उस पहले विद्रोह का ज़िक्र भी है।

फिल्म में आउवा के बारे में एक फाग-गीत है जिसे लंगा घुम्मकड़ जाति के लोकगायकों ने लंगा शैली में गाया है (फाग केवल पुरुष गाते हैं लेकिन घुम्मकड़ जातियों में इन्हें औरतें भी गाती हैं।) यह गीत फरवरी-मार्च यानि फल्गुन के महीने में गाते हैं। नीचे के वीडियो में इस फिल्म से लंगा गायकी का छोटा सा नमूना प्रस्तुत है।


राजस्थान की पड़-गायकी में दो गायक बारी-बारी से प्रश्नोत्तर के अंदाज़ में गाते हैं और इनके पराम्परिक वाद्य को रावणहत्था कहते हैं (यानि उनके अनुसार यह वाद्य रावण के कटे हुए हाथ से बना है और रामायण काल से चला आ रहा है)। आजकल इस तरह के पाराम्परिक वाद्यों को बनाने तथा बजाने वाले दोनों कठिनाई से मिलते है। नीचे के वीडियो में पड़-गायकी का छोटा सा नमूना जिसे घुम्मकड़ जाति के गायक गा रहे हैं, इस गीत में किसी अंग्रेज़ छावनी पर हमले की बात है। इस वीडियो में आप रावणहत्था वाद्य को भी सुन सकते हैं।

१८५७ से जुड़े  कुछ लोकगीत राजस्थान की पाराम्परिक डिन्गल तथा पिन्गल शैली में थे, जिन्हें बाँकेदास जी और सूर्य बनवाले जैसे चारण कवियों ने लिखा था और इस फिल्म में डॉ. शक्तिदान कविया ने गाया था। डिन्गल भाषा व गायन शैली पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित थी जबकि पिन्गल शैली पूर्वी राजस्थान में थी। नीचे वीडियो में शक्तिदान कविया की डिन्गल गायकी का छोटा सा नमूना है।

ऐसी ही एक अन्य शैली भरतपुर क्षेत्र में भी प्रचलित थी जिसमें चारण कवियों द्वारा लिखे फगुवा गीत होली के मौके पर गाये जाते थे। इन सभी गीतों और गाथाओं में कविताएँ और दोहों का प्रयोग होता है।

बुंदेलखंड और बिहार के लोकगीत

अरुण की फिल्म का दूसरा भाग अधिकतर बुंदेलखंड तथा बिहार में केन्द्रित है। इन गीतों में एक प्रमुख नाम था कुँवर सिंह का। इस फिल्म का कुँवर सिंह से जुड़ा एक हिस्सा बिहार में उनके गाँव जगदीशपुर में उनके घर में भी शूट किया गया था, जहाँ आज उनके वंशज रहते हैं।

बुंदेलखंड वाला हिस्सा झाँसी, टीकमगढ़, छत्तरपुर, बाँदा आदि क्षेत्रों में था लेकिन कानपुर तक जाता था। टीकमगढ़ में इस फिल्म में प्रसिद्ध ध्रुपद गायिका पद्मश्री असगरी बाई (१९१८-२००६), जो अपने समय में ओरछा की राजगायिका रह चुकी थीं, ने भी हिस्सा लिया था। फिल्म में वह लेद शैली में गाती हैं, लेद शैली की खासियत थी कि इसे शास्त्रीय तथा लोकगीत दोनों तरीकों से गा सकते हैं, जिसे वह जानती थीं। नीचे वाले वीडियो में इस फिल्म से सुश्री असगरी बाई की गायकी का छोटा सा नमूना।

इन लोकगीतों में १९४२ के बुंदेला विद्रोह से ले कर झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानियाँ थीं।

मराठा राज्य के बाद जब बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ों का राज हुआ तो उन्होंने राजस्व कर को बढ़ा दिया। १९३६ के बुढ़वा मंगल मेले में विद्रोह की बात शुरु हुई जिसमें जैतपुर के राजा परिछत (पारिछित या परीक्षित) द्वारा सागर की अंग्रेज़ छावनी पर हमला करने का निर्णय लिया गया था, जिसे बुंदेला विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इन लोकगीतों में उसी छावनी पर हमले की बात की गई है।

इन गीतों में हरबोलों द्वारा गाया राजा परिछित द्वारा छावनी पर हमले के गीत भी हैं जिनमें हर पंक्ति के बाद "हर हर बम" जोड दिया जाता है। बुंदेलखंड में लोकगीत गायकों ने यह "हर हर बम" जोड़ने का तरीका अपनाया था जिसकी वजह से लोग उन्हें "बुंदेली हरबोले" के नाम से जानने लगे थे। सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रसिद्ध कविता "बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी", इन्हीं लोकगायकों की बात करती थी।

राजा परिछित की कहानी पर अरुण की फिल्म में एक गीत राजस्थानी पड़-गायकी से मिलती-जुलती बुंदेलखंड की सैर-गायकी शैली में भी है जिसमें दो लोग मिल कर गाते हैं। इस लोकगीत के लिए गायकों की खोज बहुत कठिन थी क्योंकि काम न होने से वे गायक अन्य कामों में लग गये थे। आखिरकार, एक गाँव से एक रंगरेज मिले थे, जिनके परिवार में यह गायकी होती थी जिसे वह भूले नहीं थे और वह इसे गाने के लिए तैयार हो गये थे। आज सैर-गायकी के गायक खोजना और भी कठिन होगा।

फिल्म में मूंज, लेघ, आदि शैलियों में भी लोकगीत हैं, शायद स्थानीय लोग इनकी बारीकियों को समझ सकते हैं। जैसे कि एक गीत में मसोबा की आल्हा शैली में रानी लक्ष्मीबाई के बारे में गाया गया है। 

अंत में

अरुण की इस फिल्म के दोनों भागों में उत्तर भारत की लोकगीत-शैलियों के इतने सारे नमूने मिलते हैं कि उनकी विविधता पर अचरज होता है, लेकिन सोचूँ तो लगता है कि यह फिल्म भारत के कुछ छोटे से हिस्सों की परम्पराओं को ही दिखाती हैं, बाकी भारत में जाने कितनी अन्य शैलियाँ थीं, जो लुप्त हो गईं या लुप्त हो रहीं होंगी। शायद सहपीडिया जैसी कोई संस्थाएँ हमारी इस सांस्कृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संभाल कर रख रही हों, लेकिन वह संभाल भी संग्रहालय जैसी होगी, वे जीते-जागते लोक-जीवन और लोक-संस्कृति का हिस्सा नहीं होगीं।

नीचे के आखिरी वीडियो में कुँवर सिंह के बारे में एक भोजपुरी गीत का छोटा सा अंश है, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है।


आज इंटरनेट पर नर्मदा प्रसाद गुप्त, कोमल कोठारी, शक्तिदान कविया, असगरी बाई जैसे लोगों की कोई रिकोर्डिन्ग नहीं उपलब्ध, कम से कम उस दृष्टि से अरुण की फिल्म में उनका कुछ परिचय मिलता है। मेरे विचार में ऐसी फिल्मों में भारत की सांस्कृतिक धरोहर का इतिहास है इसलिए दूरदर्शन को ऐसी फिल्मों को इंटरनेट पर उपलब्ध करना चाहिये।

इसके अतिरिक्त अरुण की एक अन्य फ़िल्म है जिसमें संस्कृत, पालि, पाकृत, हिंदी, और उत्तर भारतीय भाषओ-बोलियों के जन्म की बात की गई है, आप उसके बारे में भी इसी ब्लॉग में एक अन्य आलेख में पढ़ सकते हैं - जिस तरह हम बोलते हैं (इसमें भी फ़िल्म के कुछ वीडियो-क्लिप देख भी सकते हैं)।

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मंगलवार, अगस्त 29, 2023

"आदिपुरुष" की राम कथा

कुछ सप्ताह पहले आयी फ़िल्म "आदिपुरुष" का जन्म शायद किसी अशुभ महूर्त में हुआ था। जैसे ही उसका ट्रेलर निकला, उसके विरुद्ध हंगामे होने लगे। कुछ मित्रों ने देख कर फ़िल्म के बारे में कहा कि वह तीन घंटों की एक असहनीय यातना थी, जिसकी जितनी बुराईयाँ की जायें, वह कम होंगी। जब फ़िल्म के बारे में इतनी बुराईयाँ सुनी तो मन में उसे देखने की इच्छा का जागना स्वाभाविक था, कि मैं भी देखूँ और फ़िर उसकी बुराईयाँ करूँ। चूँकि फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर है तो उसे देखने का मौका भी मिल गया।

जैसा कि अक्सर होता है, जब किसी फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों और उसे देखने का मौका मिले तो लगता है कि वह इतनी भी बुरी नहीं थी। "आदिपुरुष" देख कर मुझे भी ऐसा ही लगा, बल्कि लगा कि उसके कुछ हिस्से और बातें अच्छी थीं।

फ़िल्म की जो बातें मुझे नहीं जंचीं

लेकिन इस आलेख की शुरुआत उन बातों से करनी चाहिये जो मुझे भी अच्छी नहीं लगी। उनमें सबसे पहली बात है कई जगहों पर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग अच्छा नहीं है। जैसे कि मुझे कम्प्यूटर ग्राफिक्स से बने दोनों पक्षी, यानि रावण का वहशी वाहन और जटायू, यह दोनों और उनकी लड़ाई वाले हिस्से अच्छे नहीं लगे। इसी तरह से बनी वानर सैना भी मुझे अच्छी नहीं लगी। फ़िल्म के जिन हिस्सों में यह सब थे, मुझे लगा कि वह कमज़ोर थे, क्योंकि उनमें अत्याधिक नाटकीयता थी जिसकी वजह से उन दृष्यों से भावनात्मक जुड़ाव नहीं बनता था।

लेकिन इन हिस्सों के अतिरिक्त कुछ अन्य हिस्से थे, जहाँ के कम्प्यूटर ग्राफिक्स मुझे अच्छे लगे, हालाँकि मेरे विचार में फ़िल्म में कपिदेश तथा लंका वाले हिस्सों में श्याम और गहरे नीले रंगों को इतनी प्रधानता नहीं देनी चाहिये थी। शायद फ़िल्म के यह काले-गहरे नीले रंगों वाले हिस्से हॉलीवुड की चमगादड़-पुरुष यानि बैटमैन की फ़िल्मों से कुछ अधिक ही प्रभावित थे। इसी तरह से फ़िल्म के अंत में रावण के शिव मंदिर से बाहर निकलने वाले दृश्य में हज़ारों चमगादड़ जैसे जीवों का निकलना भी उसी प्रभाव का नतीज़ा था।

भारतीय कथा-कहानियों के कल्पना जगत, उनके भगवान और उनके लीलास्थल, रोशनी और रंगों से भरे हुए होते हैं, जैसा कि हमारे मंदिरों की मूर्तियों, रामलीलाओं, नाटकों और नृत्यों में होता है। बजाय "बैटमैन" से प्रेरणा लेने के, अगर फ़िल्म "अवतार" जैसे प्रज्जवलित रंगो वाले संसार की सृष्टि की जाती तो वह बेहतर होता (फ़िल्म में जंगल के ऐसे कुछ हिस्से हैं, लेकिन थोड़े से हैं).

फ़िल्म में "सोने की लंका" को काले पत्थर की लंका बना दिया गया है, जो मेरी कल्पना वाली लंका से बिल्कुल उलटी थी।

लंका की अशोक वाटिका, जहाँ जानकी कैद होती हैं, को इस फ़िल्म में जापानी हानामी फैस्टिवल जैसा बनाया गया है जिसमें काले पत्थरों के बीच में गुलाबी चैरी के फ़ूलों से भरे पेड़ लगे हैं जो देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं। हालाँकि यह भी मेरी कल्पना की अशोक वाटिका से भिन्न थी, लेकिन यह मुझे अच्छी लगी, क्योंकि मुझे लगा कि इन दृश्यों में वे काले पत्थर जानकी की मानसिक दशा को अभिव्यक्त करते थे। फ़िल्म के अभिनेताओं में मुझे जानकी का भाग निभाने वाली अभिनेत्री सबसे अच्छी लगीं।

हनुमान, सुग्रीव तथा वानर सैना

जब फ़िल्म का ट्रेलर आया था तो लोग उसमें हनुमान जी के स्वरूप को देख कर बहुत क्रोधित हुए थे। फ़िल्म में हनुमान जी को देख कर मुझे भी शुरु में कुछ अजीब सा लगा लेकिन फ़िर मुझे वह अच्छे लगे। लोग उनके डायलोग सुन कर भी खुश नहीं थे, जबकि मुझे लगा कि इस तरह से फ़िल्म में हनुमान जी की वानर बुद्धि दिखाई गयी है। यानि इसके हनुमान जी सीधी-साधी सोच वाले, कुछ-कुछ गंवार से हैं, लेकिन राम-भक्ती से भरे हैं। वह ऐसे जीव हैं जिन्हें ऊँची जटिल बातों और कठिन पहेलियों के उत्तर नहीं आते, लेकिन वह हर बात को अपनी राम-भक्ति के चश्में से देख कर उनका सहज उत्तर खोज लेते हैं। मुझे उनका यह गैर-बुद्धिजीवि रूप अच्छा लगा।

फ़िल्म में वानरों और कपि-पुरुषों को भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाया गया है। जैसे कि अगर हनुमान जी की त्वचा मानवीय लगती है तो बाली और सुग्रीव की गोरिल्ला जैसी। साथ में वानर भी विभिन्न प्रकार के हैं। मेरी समझ में फ़िल्म में इस तरह से वानर सैना और कपिराजों को आदिकालीन प्राचीन मानव की विभिन्न नसलों की तरह बनाया गया है।

मैंने बचपन से रामपाठ और रामलीलाएँ देखी हैं, उनमें सामान्य लोकजन के लिए हँसी-मज़ाक भी होता है और नर्तकियों के झटकेदार नृत्य भी होते हैं, जबकि कुछ लोग जो फ़िल्म की बुराई कर रहे थे,उन्हें इन सब बातों से आपत्ति थी। रामकथा को धर्म और श्रद्धा से सुनने का अर्थ यह बन गया है कि उसमें से लोकप्रिय हँसी-मजाक और ठुमके वाले गीत-नृत्यों आदि को निकाल दिया जाये। मेरी दृष्टि में यह गलती है। यह सच है कि अन्य धर्मों के पूजा स्थलों पर चुपचाप रहना और गम्भीर चेहरा बनाना होता है, वहाँ पर हँसी-मज़ाक की जगह नहीं होती, लेकिन मैंने मन्दिरों में, तीर्थ स्थलों आदि में आम जनता को कभी चुपचाप नहीं देखा, फ़िल्मी धुनों पर भजन और गीत गाना, हँसी-मज़ाक करना, अड़ोसियों-पड़ोसियों की आलोचना करना, मन्दिरों में और तीर्थस्थलों पर यह सब कुछ आनंद से होता है। अन्य धर्मों की देखा-देखी, हिन्दू धर्म की खिलंदड़ता और आनंद को दायरों में बाँधना, कहना कि ऐसा न करो, वैसा न करो, मुझे गलत लगता है।

रामकथा की नयी परिकल्पना

रामायण की कथा को अनेकों बार विभिन्न रूपों में परिकल्पित किया गया है। इन सब परिकल्पनाओं में तुलसीदास जी की रामचरित मानस का विशिष्ठ स्थान है। लेकिन यह कहना कि रामकथा को नये समय के साथ नये तरीकों से परिभाषित न किया जाये, तो बहुत बड़ी गलती होगी। हमारे उपनिषद कहते हैं कि हर जीव में ईश्वर हैं और जीवन के अंत में हर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, यानि "अहं शिवं अस्ति", हमारे भीतर शिव हैं, इसलिए हर आत्मा को अधिकार है कि वह अपनी समझ से अपने ईश्वर से बात करे। जब आप यह बात स्वीकार करते हैं तो क्या व्यक्ति से अपने अंदर के भगवान से बात करने के उसके अधिकार को छीन लेंगे? रामायण को और धर्म से जुड़ी हर बात को, हर कोई अपनी दृष्टि से परिभाषित कर सके, यह भी तो हमारा अधिकार है।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हम लोग समय और विकास के साथ, अपने धर्म को बदल व सुधार सकें, उसे सही दिशा में ले कर जायें।

इस दृष्टि से "आदिपुरुष" में रामकथा के कुछ हिस्सों की नयी परिभाषा की गयी है जो मुझे अच्छी लगीं। जैसे कि बाली और सुग्रीव के युद्ध में राम का हस्ताक्षेप। रामलीला में जब यह हिस्सा आता था तो मुझे हमेशा लगता था कि राम ने छिप कर बाली पर पीठ से वार करके सही नहीं किया, क्योंकि इसमें मर्यादा नहीं थी। लेकिन "आदिपुरुष" में इस घटना को जिस तरह से दिखाया गया है, वह नयी परिभाषा मुझे अच्छी लगी।

ऐसे ही रामलीला में लक्ष्मण का सूर्पनखा की नाक को काटना भी मुझे हमेशा गलत लगता था लेकिन फ़िल्म में इस घटना को जिस तरह दिखाया गया है, जिसमें लक्ष्मण सीता जी की रक्षा के लिए दूर से सूर्पनखा पर वार करते हैं जो उसकी नाक पर लग जाता है, यह परिकल्पना भी मुझे अच्छी लगी।

लेकिन फ़िल्म का रावण मुझे विद्वान और ज्ञानी ब्राह्मण कम और सामान्य खलनायक अधिक लगा। फ़िल्म के प्रारम्भ में उसकी तपस्या से खुश हो कर जब ब्रह्मा जी उसे वरदान देते हैं तब भी उसे दम्भी, अहंकारी दिखाया गया है, तो मन में प्रश्न उठा कि ब्रह्मा जी कैसे भगवान थे कि वह उसके मन की इन भावनाओं को देख नहीं पाये? क्या तपस्या का अर्थ केवल शरीर को कष्ट देना या ध्यान करना है, उसमें मन का शुद्धीकरण नहीं चाहिये? बाद में रावण का सीताहरण भी केवल वासना तथा अहंकार का नतीजा दिखाया गया है। रावण के व्यक्तित्व से जुड़ी यह दोनों बातें मुझे इस फ़िल्म की कमज़ोरी लगीं।

लेकिन रामानंद सागर की रामायण या रामलीला में डरावना दिखाने के लिए जिस तरह से "हा-हा-हा" करके हँसने वाले रावण या कुंभकर्ण आदि दिखाये जाते थे, वे यहाँ नहीं दिखे, यह बात मुझे अच्छी लगी।

और अंत में

मुझे "आदिपुरुष" फ़िल्म बुरी नहीं लगी, बल्कि इसके कुछ हिस्से और फ़िल्म का संगीत बहुत अच्छे लगे। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ जो फ़िल्मों को बैन करने की बात करते हैं। मेरे विचार में हमें रामकथा या महाभारत या अन्य धार्मिक कथाओ को नये तरीकों से परिभाषित करते रहना चाहिए। अगर आप को उन नयी परिभाषाओ से आपत्ति है तो उसके विरुद्ध लिखिये, या आप अपनी नयी परिभाषा गढ़िये।  

पिछले कुछ समय से बात-बात पर कुछ लोग सोशल मीडिया पर उत्तेजित हो कर तोड़-फोड़ या बैन की बातें करने लगते हैं। कहते हैं कि उन्होंने हमारे भगवान का या धर्म का या भावनाओ का अपमान किया है, इसलिए हम इस नाटक, फ़िल्म, कला या किताब को बाहर नहीं आने देंगे, दंगा कर देंगे या आग लगा देंगे। मेरे विचार में इन लोगों को हिन्दू धर्म का ज्ञान नहीं है और यह देवनिंदा को अन्य धर्मों की दृष्टि से देखते हैं (मैंने "देवनिंदा" के विषय पर पहले भी लिखा है, आप चाहे तो उसे पढ़ सकते हैं।) मुझे लगता है कि यह उनके आत्मविश्वास की कमी तथा मन में हीनता की भावना का नतीजा है। 

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शनिवार, जून 17, 2023

प्राचीन भित्ती-चित्र और फ़िल्मी-गीत

कुछ सप्ताह पहले मैं एक प्राचीन भित्ती-चित्रों की प्रदर्शनी देखने गया था। दो हज़ार वर्ष पुराने यह भित्ती-चित्र पोमपेई नाम के शहर में मिले थे। उन चित्रों को देख कर मन में कुछ गीत याद आ गये। भारत में फ़िल्मी संगीत हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाता है, और हमारे जीवन में कोई भी परिस्थिति हो, उसके हिसाब से उपयुक्त गीत अपने आप ही मानस में उभर आते है। यह आलेख इसी विषय पर है।

पोमपेई के प्राचीन भित्ती-चित्र

इटली की राजधानी रोम के दक्षिण में नेपल शहर के पास एक पहाड़ है जिसका नाम वैसूवियो पर्वत है। आज से करीब दो हज़ार वर्ष पूर्व इस पहाड़ से एक ज्वालामुखी फटा था, जिसमें से निकलते लावे ने पहाड़ के नीचे बसे शहरों को पूरी तरह से ढक दिया था। उस लावे की पहली खुदाई सन् १६०० के आसपास शुरु हुई थी और आज तक चल रही है।



इस खुदाई में समुद्र तट के पास स्थित दो प्राचीन शहर, पोमपेई और एरकोलानो, मिले हैं जहाँ के हज़ारों भवनों, दुकानों, घरों, और उनमें रहने वाले लोगों को, उनके कुर्सी, मेज़, उनकी चित्रकला और शिल्पकला, आदि सबको उस ज्वालामुखी के लावे ने दबा दिया था और जो उस जमे हुए लावे के नीचे इतनी सदियों तक सुरक्षित रहे हैं।

मैं पोमपेई के भग्नवषेशों को देखने कई बार जा चुका हूँ और हर बार वहाँ जा कर दो हज़ार वर्ष पहले के रोमन जीवन के दृश्यों को देख कर चकित हो जाता हूँ। जैसे कि नीचे वाले चित्र में आप पोमपेई का एक प्राचीन रेस्टोरैंट देख सकते हैं - इसे देखते ही मैं पहचान गया क्योंकि इस तरह के बने हुए ढाबे और रेस्टोरैंट आज भी भारत में आसानी से मिलते हैं।
 

इन अवषेशों से पता चलता है कि उस ज़माने में वहाँ के अमीर लोगों को घरों की दीवारों को भित्तीचित्रों से सजवाने का फैशन था, जिनमें उनके देवी-देवताओं की कहानियाँ चित्रित होती थीं। इन्हीं चित्रों की एक प्रदर्शनी कुछ दिन पहले बोलोनिया शहर के पुरातत्व संग्रहालय में लगी थी।

पोम्पेई कैसा शहर था और ज्वालामुखी फटने से क्या हुआ इसे समझने के लिए आप एक छोटी सी (८ मिनट की) फिल्म को भी देख सकते हैं जो कि बहुत सुंदर बनायी गयी है।

अब बात करते हैं पोमपेई के कुछ भित्तीचित्रों की जिन्हें देख कर मेरे मन में हिंदी फिल्मों के गीत याद आ गये।

प्रार्थना करती नारी

नीचे वाला भित्तीचित्र पोमपेई के एक बंगले में मिला जिसे चित्रकार का घर या सर्जन (शल्यचिकित्सक) का घर कहते हैं। इसमें एक महिला स्टूल पर बैठी है, उनके सामने एक मूर्ति है और मूर्ति के नीचे किसी व्यक्ति का चित्र रखा है। चित्र के पास एक बच्चा बैठा है और नारी के पीछे दो महिलाएँ खड़ी हैं। चित्र को देख कर लगता है कि वह नारी भगवान से उस व्यक्ति के जीवन के लिए प्रार्थना कर रही है। सभी औरतों के वस्त्र भारतीय पौशाकों से मिलते-जुलते लगते हैं।
 

इस चित्र को देखते ही मुझे १९६६ की फ़िल्म "फ़ूल और पत्थर" का वह दृश्य याद आ गया जिसमें राका (धर्मेंद्र) बिस्तर पर बेहोश पड़ा है और विधवा शांति (मीना कुमारी) भगवान के सामने उनके ठीक होने की प्रार्थना कर रही है, "सुन ले पुकार आई, आज तेरे द्वार लेके आँसूओं की धार मेरे साँवरे"।

इसी सैटिन्ग में "लगान" का गीत "ओ पालनहारे" भी अच्छा फिट बैठ सकता है। वैसे यह सिचुएशन हिंदी फिल्मों में अक्सर दिखायी जाती है और इसके अन्य भी बहुत सारे गाने हैं।

संगीतकार और जलपरी की कहानी

पोमपेई के भित्ती-चित्रों में ग्रीक मिथकों की कहानियों से जुड़े बहुत से भित्ती-चित्र मिले हैं। जैसे कि प्राचीन ग्रीस के मिथकों की एक कहानी में भीमकाय शरीर वाले पोलीफेमों को जलपरी गलातेया से प्यार था, उन्होंने संगीत बजा कर उसे अपनी ओर आकर्षित करने की बहुत कोशिश की लेकिन जलपरी नहीं मानी क्यों कि वह किसी और से प्यार करती थी। नीचे दिखाये भित्ती-चित्र में पोलीफेमो महोदय निर्वस्त्र हो कर गलातेया को बुला रहे हैं जबकि गलातेया अपनी सेविका से कह रही है कि इस व्यक्ति को यहाँ से जाने के लिए कहो।


इस चित्र की जलपरी सामान्य महिला लगती है और उनके वस्त्र व वेशभूषा भारतीय लगते हैं। मेरे विचार में भारत में अप्सराओं को गहनों से सुसज्जित बनाते हैं जबकि यह जलपरी उनके मुकाबले में बहुत सीधी-सादी लगती है।

जैसा कि इस चित्र में दिखाया गया है, प्राचीन रोमन तथा यवनी भित्तीचित्रों में पुरुष शरीर की नग्नता बहुत अधिक दिखती है और उसकी अपेक्षा में नारी नग्नता कम लगती है। इस चित्र को देख कर मुझे लगा कि इसमें पोलीफेमो अनामिका फिल्म का गीत गा रहा है, "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा", जबकि जलपरी कन्यादान फिल्म का गीत गा रही है, "पराई हूँ पराई, मेरी आरजू न कर"।

यवनी सावित्री और सत्यवान

प्राचीन ग्रीस की भी एक सावित्री और सत्यवान की कहानी से मिलती हुई कथा है। उनके नाम थे अलसेस्ती और अदमेतो, लेकिन इनकी कथा भारतीय कथा से थोड़ी सी भिन्न थी।

जब अदमेतो को लेने मृत्यु के देवता आये तो अदमेतो ने उनसे विनती की कि उन्हें नहीं मारा जाये, तो मृत्यु देव ने कहा कि वह उनके बदले उनके परिवार के किसी भी व्यक्ति की आत्मा ले कर चले जायेंगे, जो  उनकी जगह मरने को तैयार हो।

अदमेतो ने अपने माता-पिता से अपनी जगह पर मरने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। तब उनकी पत्नी अलसेस्ती बोली कि वह उसकी जगह मरने को तैयार थी। मृत्यु देव अलसेस्ती की आत्मा को ले कर वहाँ से जा रहे थे जब भगवान अपोलो ने उसे जीवनदान दिया और वह पृथ्वी पर अपने पति के पास लौट आयी।

इस चित्र में नीचे वाले हिस्से में अदमेतो, अलसेस्ती और उनके दास को दिखाया गया है। ऊपरी हिस्से में, उनके पीछे बायीं ओर अदमेतो के बूढे माता-पिता हैं और दायीं ओर, अलसेस्ती और भगवान आपोलो हैं।
 

इस चित्र में अलसेस्ती की वेशभूषा और उसके चेहरे का भाव मुझे बहुत भारतीय लगे, जबकि अदमेतो को निर्वस्त्र दिखाया गया है।
 
सावित्री-सत्यवान की कहानी पर बहुत सी फ़िल्में बनी हैं, लेकिन इस सिचुएशन वाला उनका कोई गीत नहीं मालूम था, उसकी जगह पर मेरे मन में एक अन्य गीत याद आया, “मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाये, बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाये"। कहिये, यह गीत इस सिचुएशन पर भी बढ़िया फिट बैठता है न?

विश्वामित्र और मेनक

कालीदास की कृति "अभिज्ञान शकुंतलम" में ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र स्वर्गलोक से अप्सरा मेनका को भेजते हैं, और उनके मिलन से शकुंतला पैदा होती है। अगले चित्र में ऐसी ही स्वर्ग की एक देवी की प्राचीन यवनी कहानी है।

इस ग्रीक कथा में स्वर्ग की देवी सेलेने का दिल धरती के सुंदर राजा एन्देमेनों पर आ जाता है तो वह खुद को रोक नहीं पाती और कामातुर हो कर उनसे मिलन हेतू धरती पर आती है। यह कहानी भी उस समय बहुत लोकप्रिय थी क्योंकि इस विषय पर बने बहुत से भित्तीचित्र मिले हैं। नीचे वाले चित्र में सेलेने निर्वस्त्र हो कर एन्देमेनो कीओर आ रही हैं, उनकी पीछे एक एँजल बनी है।


इस कथा के अनुसार देवी सेलेने उससे प्रेम करते समय एन्देमेनों को सुला देती है, इस तरह से वह सोचता है कि वह सचमुच नहीं था बल्कि उसने सपने में किसी सुंदर अप्सरा से प्रेम किया था।

इस तस्वीर को देख कर मेरे मन में आराधना फ़िल्म का यह गीत आया - “रूप तेरा मस्ताना, प्यार मेरा दीवाना, भूल कोई हमसे न हो जाये"। इस सिचुएशन पर अनामिका फ़िल्म का गीत, "बाहों में चले आओ, हमसे सनम क्या परदा" भी अच्छा फिट होता।

हीरो जी

अंत में अपने हीरो जैसे शरीर पर इतराते एक युवक की शिल्पकला है, जिसे देख कर मुझे सलमान खान की याद आई। इस शिल्प कला से लगता है कि उस समय अमीर लोगों का अपने घरों में नग्न पुरुष शरीर को दिखाना स्वीकृत था।


जब मैंने इस कलाकृति को देखा तो मन में सलमान खान का गीत "मैं करूँ तो साला करेक्टर ढीला है" याद आ गया। अगर कोई आप से इस युवक के चित्र के लिए गीत चुनने को कहे तो आप कौन सा गीत चुनेंगे?

मैंने पढ़ा कि शिल्प और चित्रकला में पुरुष शरीर को दिखाने की ग्रीक परम्परा में पुरुष यौन अंग को छोटा दिखाना बेहतर समझा जाता था, क्यों कि वह लोग सोचते थे कि इससे पुरुष वीर्य जब बाहर निकलता है तो वह अधिक गर्म और शक्तिशाली होता है, जबकि अगर वह अंग बड़ा हो गा तो वीर्य बाहर निकलते समय ठंडा हो जायेगा और उसकी शक्ति कम होगी।

अंत में

मुझे पोमपेई की गलियों और घरों में घूमना और वहाँ के दो हज़ार साल पहले के जीवन बारे में सोचना बहुत अच्छा लगता है।

भारत में मध्यप्रदेश में भीमबेटका में आदि मानव के जीवन और महाराष्ट्र में अजंता जैसी गुफाओं में भगवान बुद्ध के समय के जीवन, या फ़िर उत्तर-पश्चिम में लोथाल, गनेरीवाला और राखीगढ़ी जैसी जगहों पर पुरातत्व अवशेषों से और भित्ती-चित्रों से सिंधु घाटी सभ्यता को समझने के मौके मिलते हैं, लेकिन पोमपेई तथा एरकोलानो में जिस तरह से उस समय का समस्त जीवन पिघले हुए लावे में कैद हो गया, वह दुनिया में अनूठा है।

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गुरुवार, अप्रैल 06, 2023

उपन्यास और जीवन

कई बार जब जीवन का समय कम बचता है तो जिस बात को जीवन भर नहीं कह पाये थे, उसे कहने का साहस मिल जाता है। मेरे मन में भी बहुत सालों से कुछ कहानियाँ घूम रही थीं और अब जीवन के अंतिम चरण में आ कर उन्हें लिखने का मौका मिला है।

शनिवार पहली अप्रैल को इतालवी लेखिका आदा द'अदामो चली गयीं। कुछ माह पहले ही उनका पहला उपन्यास, “कोमे द'आरिया" (जैसे हवा) आया था और आते ही बहुत चर्चित हो गया था। कुछ सप्ताह में २०२२-२३ के सर्वश्रेष्ठ उपन्यास का इतालवी पुरस्कार स्त्रेगा घोषित किया जायेगा, उसके लिए चुनी गयी दस पुस्तकों में "कोमे द'आरिया" भी है।

पचपन वर्ष की आदा को कैंसर था और अपनी आत्मकथा पर आधारित उनके उपन्यास में उन्होंने उस कैंसर की बात और अपनी बेटी दारिया की बात की है। उनके उपन्यास के शीर्षक को "जैसे हवा" की जगह पर "जैसे दारिया" भी पढ़ सकते हैं।

दारिया को एक गम्भीर विकलाँगता है और रोज़मर्रा के जीवन के लिए उन्हें सहायता की आवश्यकता है। आदा की भी वही चिंता है जो उन हर माता-पिता की होती है जिनके बच्चों को गम्भीर विकलाँगता होती है और जिनमें मन में प्रश्न उठते हैं कि हमारे बाद हमारे बच्चे का क्या होगा।



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सारा जीवन यात्राओं में बीत गया। सन् २००१ में, जब कुछ महीनों के लिए जेनेवा में परिवार से दूर रह रहा था, तब पहली बार एक उपन्यास लिखने की कोशिश की थी। कुछ महीनों की कोशिश के बाद उसे छोड़ दिया।

दो दशकों से मेरे मन में तीन कहानियाँ घूम रही थीं, जिन्हें मैं अपने "अमर, अकबर, एन्थोनी" उपन्यास कहता था, क्योंकि मनमोहन देसाई की फ़िल्मों की तरह उन सब में खोयी माएँ, बिछड़े भाई और पिता थे। सोचता था कि यह तीनों उपन्यास मेरे साथ बिना लिखे ही रह जायेंगे। हर एक-दो साल में उनमें से किसी कथा के पात्र मेरी कल्पना में जीवित हो जाते थे तो उसे लिखने की इच्छा जागती थी, हर बार थोड़ा-बहुत बहुत लिखता और फ़िर अटक जाता।

दो साल पहले, कोविड की वजह से घर में बन्द थे और सब यात्राएँ रद्द हो गयीं थीं। कोविड से चार मित्रों की मृत्यु हुई और इसी समय में एक मित्र, जिसे कुछ वर्ष पहले यादाश्त खोने वाली बीमारी हो रही थी, उसकी पत्नी ने बताया कि वह अपने बेटे को नहीं पहचान पाता था। इन सब बातों का दिल और दिमाग को असर तो था ही, मुझे दिखने में कठिनाई होने लगी, उसके लिए मोतियाबिंद का आप्रेशन हुआ लेकिन पूरा ठीक नहीं हुआ, तो यह ड़र भी लगने लगा कि दृष्टि पूरी न चली जाये।

शायद इन सब बातों का मिल कर कुछ असर हुआ या फ़िर लगा कि अब सत्तर की उम्र के पास आ कर भी इस काम को नहीं किया तो यह नहीं होगा। जो भी था, एक उपन्यास को २०२१ में लिखना शुरु किया और उसे पूरा करके ही रुका। इसमें एक बेटे की अपनी खोयी हुई माँ और भाई को खोजने की कहानी है।

उसे कुछ लोगों को पढ़वाया, अधिकतर सकरात्मक टिप्पणियाँ ही मिलीं, पर यह भी सोचा कि परिवार या मेरी जान पहचान के लोग नकारात्मक बात नहीं कहेंगे। खैर जितने सुझाव मिले, उनमें से कुछ ठीक लगे तो उपन्यास को दोबारा, तिबारा लिखने में उन्हें लागू किया। अब वह लगभग पूरा हो चुका है, मेरी रिनी दीदी उसे वर्तनी की गलतियों के लिए जाँच रहीं हैं, फ़िर उसके लिए प्रकाशक खोजने का काम होगा।

अगर आप में से कोई अनुभवी जन मेरे उपन्यास के प्रकाशन के बारे में मुझे कुछ सलाह और सुझाव दे सकते हैं तो आप को पहले से धन्यवाद।

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इटली के हमारे छोटे से शहर में हमारा एक किताबें पढ़ने वाला का ग्रुप है। हम सब लोग महीने में एक बार मिलते हैं और किसी एक किताब की चर्चा करते हैं, और अगली किताब कौन सी पढ़ी जाये का निर्णय लेते हैं। मुझे पाँच वर्ष हो गये इस ग्रुप का सदस्य बने हुए। इसमें भाग लेने से मुझे यह समझ में आया है कि ऐसी किताबें तो कम ही होती हैं जो सबको पसंद आयें। अक्सर ऐसा होता है कि कोई किताब किसी को बहुत पसंद आती है और किसी को बिल्कुल भी नहीं।

इसलिए सोचता हूँ कि मेरी किताब भी कोई न कोई पाठक होंगे। हो सकता है कि वह बहुत से लोगों को पसंद न आये। मेरे इतालवी ग्रुप के मित्रों को शिकायत है कि मैंने यह किताब हिंदी में क्यों लिखी। कुछ लोग मुझसे कहते हैं कि मुझे इसका तुरंत इतालवी में अनुवाद करना चाहिये।

मैं कहता हूँ कि अगर इसका अनुवाद होगा तो वह कोई और ही करेगा, वह मेरे बस की बात नहीं। यह भी लगता है कि न जाने लिखने के लिए मेरे पास कितने साल बचे हैं, मुझे अपने "अमर, अकबर, एन्थोनी" के दूसरे उपन्यास को लिखने के बारे में सॊचना चाहिये।

लगता है कि शब्दों की नदी मन के भीतर कहीं पर अटकी थी, अब बाँध तोड़ कर निकली है तो रुकती नहीं। कभी-कभी मन सपने बुनता है कि यह तीनों पूरे हो जायें तो एक उपन्यास साईन्स फ़िक्शन का भी लिखना है। फ़िर मन में आता है कि लम्बे कार्यक्रम बनाना ठीक नहीं। हर दिन जो लिखने का मिलता है, उसी के लिए खुश रहना चाहिये।

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लिखते समय जब भी कहानी किसी मोड़ पर अटक जाती थी तो अक्सर उसका उपाय शाम को सैर करते हुए सूझता था, या कभी-कभी, सुबह जागने पर।

शाम की सैर उपन्यास की परिस्थितियों और पात्रों के बारे में सोचने का सबसे अच्छा मौका है। इसके लिए घर से निकलता हूँ तो अक्सर पास वाली नदी वाला रास्ता लेता हूँ। पिछले साल की तरह, इस साल भी हमारी नदी सूखी है। सैर करते समय नदी के जल का कलरव, कभी पत्थरों और चट्टानों से टकराने का, कभी झरनों का, वह शोर मुझे सोचने में सहायता करता था।

लेकिन नदी सूखी होने से बहुत महीनों से चुप बैठी है। यह धरती, हमारा पर्यावरण, सब कुछ बदल रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि आर्टिफीशियल इन्टैलिजैंस यानि कृत्रिम बुद्धिशक्ति के चैट-जीपीटी जैसे कार्यक्रम इंसानों से अच्छे उपन्यास लिखेंगे, फ़िर हमें इतनी मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

तो सोचता हूँ कि जाने कल की दुनिया कैसी होगी, होगी भी या नहीं होगी, तो लिखने, छपवाने, पढ़ाने का क्या फायदा? फ़िर सोचता हूँ, मेरी आत्म-अभिव्यक्ति का महसूस किया हुआ सुख, मेरे लिए यही काफ़ी है। असली चिंता तो आजकल के बच्चों को करनी पड़ेगी कि भविष्य में वह लोग क्या काम करेंगे?

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रविवार, जनवरी 01, 2023

2022 के सबसे सुंदर गीत

परिवार व मित्रों को खोने की दृष्टि से देखें तो मेरा यह बीता वर्ष बहुत बुरा रहा। जितने लोग इस वर्ष खोये, उतने शायद पहले किसी एक साल में नहीं खोये थे। नीचे की तस्वीर में दो परिवार के सदस्य (मेरी साली मिरियम और मेरा मौसेरा भाई राजन) और दो मित्र (इटली में दॉन सिल्वियो और इन्दोनेशिया में डा. नूरशाँती) हैं जिन्हें हमने इस वर्ष खोया। इन खोये साथियों की आत्माओं की शाँती के लिए प्रार्थना करने के साथ मेरी यही आशा है कि नया वर्ष हम सब के लिए सकरात्मक रहे, सुख लाये।


नये वर्ष को सकरात्मक ढंग से प्रारम्भ करने के लिए मैं बीते साल के अपने मनपसंद गानों की बात करना चाहता हूँ। 

मुझे वह गाने अच्छे लगते हैं जो कर्णप्रिय हों, जिनमें शोर-शराबा नहीं हो और जिनके शब्दों में कुछ गहराई हो। पिछले कई सालों से मुझे लगता था कि हिंदी में इस तरह के नये गाने बनते ही नहीं हैं। इसलिए इस वर्ष मैंने नये हिंदी गानों को ध्यान से सुना।

जब मैं बच्चा था तो मुझे अमीन सयानी का बिनाका गीत माला सुनना बहुत अच्छा लगता था जिसमें हर वर्ष-अंत के अवसर पर वह उस साल के सबसे लोकप्रिय गीत प्रस्तुत करते थे। उसी तरह से इस आलेख में इस वर्ष के मेरे सबसे मनपसंद बीस हिंदी के गाने प्रस्तुत हैं।

अगर आप को अमीन सयानी जी की आवाज़ याद है तो कल्पना कीजिये कि मेरे शब्दों को वह पढ रहे हैं। तो भाईयों और बहनों, आईये इस कार्यक्रम का प्रारम्भ करें.

20 मैं जी रहा - बीसवें नम्बर पर एक गैरफ़िल्मी गीत है जिसे गाया है शिल्पा राव तथा जाज़िम शर्मा ने, संगीतकार हैं प्रीतम और गीतकार हैं श्लोकलाल। यह गीत कर्णप्रिय तो है ही, इसके शब्द भी बहुत सुदंर हैं, जैसे कि - "मेरी खुशियों का बना तू ठिकाना, तुझी में घर मेरा, तू ही है घर मेरा"।

19 कच्चियाँ कच्चियाँ हैं निन्द्राँ तेरे बिना - उन्नीसवीं पायदान पर भी एक गैर-फ़िल्मी गीत है जिसे गाया है जुबिन नौटियाल ने, संगीत है मीत ब्रोस का और गीत को कुमार ने लिखा है। इस प्रेम गीत के शब्द देखिये, "रोज़ रात तकिये पे आँसुओं की बारिश है, धड़कने नहीं दिल में, ग़म की रिहाईश है"।

18 तुम जो मिलो - अगला गीत फ़िल्म "फ्रेड्डी" से है जिसे अभिजीत श्रीवास्तव ने गाया है, गीतकार हैं इर्शाद और संगीतकार हैं प्रीतम। इसके कुछ शब्द देखियॆ, "है यह हकीकत या ख्वाब है, यूँ लग रहा है तू पास है, आँखों को मेरी पूछो ज़रा, चेहरे की तेरी क्यों प्यास है"।

17 तुम जो गये - फ़िल्म "जुग जुग जियो" के इस गीत को दो रूपों में सुन सकते हैं, स्वाति सिन्हा की आवाज़ में और पोज़ी यानि निरंजन धर की आवाज़ में। गीतकार हैं जिन्नी दीवान और संगीत है पोज़ी का। मुझे यह गीत स्वाति सिन्हा का गाया हुआ अधिक अच्छा लगता है। इसके शब्दों में प्रेम टूटने के दर्द की कशिश है - "आँखों में बहता टूटा सा तारा, थमे न रो रो के नैना मेरे, तुम जो गये"।

16 फ़ेरो न नज़र से नज़रिया - "कला" फ़िल्म के सभी गीत १९५०-६० के दशक के गानों की याद दिलाते हैं। उनमें मेरा सबसॆ प्रिय है नयी गायिका सिरीषा भागवातुला द्वारा गाया यह गीत, जिसके संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी और जिसे लिखा है कौसर मुनीर ने। इसके दिल छूने वाले शब्द देखियॆ, "तारों को तोरे न छेड़ूँगी अब से, बादल न तोरे उधेड़ूँगी अब से, खोलूँगी न तोरी किवड़िया, फ़ेरो न नज़र से नज़रिया"।

15 न तेरे बिन रहना जी - अल्तामश फरीदी के गाये इस गीत के गीतकार और संगीतकार हैं तनिष्क बागची और यह "एक विलेन रिटर्न्स" फ़िल्म से है। प्रेम और बिछुड़ने के डर का बहुत सुंदर वर्णन है इसके शब्दों में - "तू मेरे पास है अभी, तो लम्हें खास हैं अभी, न जाने कब हुआ यकीं, के कुछ भी तेरे बिन नहीं"।

14 पा-परा-रारम कहानी - "लाल सिंह चढ्ढा" फ़िल्म का यह गीत मुझे सुनते ही बहुत भाया। हल्के फुलके पर गहरे अर्थ वाले शब्द, सादी सी धुन, इसकी सादगी में ही इसकी सुंदरता है। अमिताभ भट्टाचार्य के गीत को संगीत दिया है प्रीतम ने और इसे गाया है "अग्नि" नाम के रॉक गुट के गायक मोहन कानन ने। हालाँकि इस फ़िल्म को भारत में सफलता नहीं मिली, लेकिन मुझे यह फ़िल्म बहुत अच्छी लगी थी।

इसके शब्दों की कविता देखिये - "बैठी फ़ूलों पे तितली के जैसी, कभी रुकने दे कभी उड़ जाने दे, ज़िन्दगी है जैसे बारिशों का पानी, आधी भर ले तू आधी बह जाने दे", इसमें यह जीवन कैसे जीना चाहिये उसका पाठ छुपा है। शब्दों की दृष्टि से मेरे विचार में यह इस वर्ष का सबसे सुंदर गीत था। अमिताभ भट्टाचार्य को इस सुंदर गीत के लिए बहुत धन्यवाद व बधाई।

13 काले नैनों का जादू - यह एक पाराम्परिक लोकगीत है जिसे मिथुन ने संगीत दिया और नीति मोहन के साथ सादाब फ़रीदी और सुदेश भौंसले ने गाया है, फ़िल्म का नाम है "शमशेरा"। मेरे विचार में अगर इस गीत को किसी ऐसी अभिनेत्री करती जिसमें देहाती धरती वाली नायिका होती तो यह फ़िल्म में अधिक खिलता। खैर, सुनने में तो यह गीत बहुत कर्णप्रिय है ही। शमशेरा फ़िल्म के सभी गीत सुंदर थे, रणबीर कपूर भी बहुत बढिया थे लेकिन फ़िल्म कुछ जमी नहीं। 

12 हैलो, हैलो, हैलो - रोचक कोहली का गाया और संगीतबद्ध किया यह गीत अंग्रेज़ी और हिंदी की आजकल की छोटे शहरों की मिलीजुली भाषा बोलता है। इसे लिखा है गुरप्रीत सैनी ने और इस सम्मिश्रण के बावजूद इसके शब्दों में छोटे शहर से आने वाले नवजवानों की आकाक्षाओं का सुंदर वर्णन है।

आजकल की अधिकाँश फ़िल्मों को देख कर लगता है कि उन्हें निर्देश करने वाले, लिखने वाले और उनके अधिकतर अभिनेता सभी अंग्रेज़ी में सोचते हैं, लेकिन क्योंकि देखने वाली जनता हिंदी भाषी है, फ़िल्म बनाते हुए वह लोग उस अंग्रेज़ी विचार का हिंदी में अनुवाद कर देते हैं, लेकिन उन की सोच यूरोपीय अधिक है। जैसे इस गीत में टूटे तारे को देख कर भगवान से कुछ माँगने का विचार अंग्रेज़ी परम्परा से लिया गया है। खैर, लगता है कि यह सारी फ़िल्मी दुनिया उसी दिशा में जा रही है, उस पर रोने से कुछ नहीं होगा। 

11 नाराज़गी क्या है - सोनल प्रधान के लिखे और संगीत वाला यह गैर-फ़िल्मी गीत नये गायक राज बर्मन ने गाया है। इस प्रेम गीत के शब्द देखिये - "खैरियत भी पूछते नहीं न बात करते हो, नाराज़गी क्या है, क्यों नाराज़ रहते हो"। इसी गीत को नेहा कक्ड़ ने भी गाया है लेकिन मुझे राज बर्मन वाला गाया गीत अधिक अच्छा लगा।

10  नया प्यार है नया अहसास - फ़िल्म "मिडिल क्लास लव" के इस गीत को जुबिन नौटियाल और पलक मुच्छल ने गाया है, गीतकार व संगीतकार हैं हिमेश रेशमैया। इसके सुंदर शब्द देखिये - "तुमने न जाने क्या कर दिया, खामोशियों में शोर भर दिया ... पहली खुशबू, पहला जादू, पहली याद, पहली बारिश, पहली ख्वाहिश, पहली प्यास", विश्वास नहीं होता कि रेशमैया जैसा व्यक्ति ऐसा गीत लिख सकता है। 

09 फ़िर से ज़रा, तू रूठ जा - "अटैक" फ़िल्म के इस गीत को गाया है जुबिन नौटियाल और शाश्वत सचदेव ने, गीतकार हैं कुमार तथा संगीतकार हैं शाश्वत सचदेव। इस गीत में विरह और बिछुड़ने का बहुत भावभीना वर्णन है - "ऐ ज़िन्दगी, तू चुप है क्यों, मिल कर कभी तू बोल ना"।

08 बारिश के दिन हैं - स्टेबिन बेन का गाया यह गैर-फ़िल्मी गीत बहुत कर्णप्रिय है, एक बार सुन लीजिये तो कई दिनों तक इसे ही गुनगुनाते रह जायेंगे। इसे लिखा है कुमार ने और संगीत है विवेक कर का। इसके शब्द कुछ विषेश नहीं हैं - "बादल ही बादल, और हम पागल, तेरे इंतज़ार में", लेकिन गीत की पंक्ति "इससे बुरा क्या होगा भला, बारिश के दिन हैं, हम तेरे बिन हैं" बार-बार सुनने का मन करता है।

07 धागों का बंधन - मुझे "रक्षाबंधन" फ़िल्म का यह गीत इस वर्ष का सबसे कर्णप्रिय गीत लगा, हालाँकि इसके शब्दों तुकबंदी ही थी, नवीनता नहीं थी। अरिजीत सिंह तथा श्रेया घोषाल द्वारा गाये इस गीत को लिखा था इरशाद कामिल ने और इसका संगीत दिया था हिमेश रेशमैया ने। लगातार बार-बार सुन कर इससे अभी तक मेरा मन नहीं भरा है।

06 जैसे सावन फ़िर से आते हैं - फ़िल्म "जुग जुग जीयो" का यह गीत भी बहुत कर्णप्रिय है। इसे तनिष्क बागची और जाहरा खान ने गाया है, गीतकार व संगीतकार भी तनिष्क बागची ही हैं। यानि बागची साहब बहुमुखी प्रतिभा हैं। गीत के शब्द देखिये - "कोई बाकी न हो बातें अनकही, जिसे चाहे यह दिल वह रूठे अगर, तो मनाले उसे झूठा सही, झूठा ही सही"।

05 फितूर - पाँचवें नम्बर पर फ़िर से "शमशेरा" फ़िल्म का यह गीत है जिसे करण मल्होत्रा ने लिखा है, संगीत मिथुन का है और गाया है अरिजीत सिंह और नीति मोहन ने। इस गीत के बोल दिल को छू लेने वाले हैं - "तू छाँव है सो जाऊँ मैं, तू धुँध है खो जाऊँ मैं, तेरी आवारागी बन जाऊँ मैं, तुझे दिल की जुबाँ समझाऊँ मैं"। यह गीत बहुत कर्णप्रिय भी है, लेकिन फ़िल्म में इस तरह से दिखाया गया है कि उसकी उन्नीसवीं शताब्दी की पृष्ठभूमि में बहुत अजीब सा लगता है।

04 केसरिया - "ब्रह्मास्त्र" फ़िल्म का यह गीत अरिजीत सिंह ने गाया है और बहुत लोकप्रिय हुआ है। इसके गीतकार हैं अमिताभ भट्टाचार्य और संगीत है प्रीतम का। इस गीत को अनेकों बार सुन कर भी यह नया लगता रहता है।

कहने को यह फ़िल्म शिव, पार्वति और पौराणिक कथाओं से जुड़ी थी लेकिन मुझे लगा कि इसकी सोच अंग्रेज़ी में थी, उस पर केवल कलई भारतीय थी लेकिन बनाने वालों में पौराणिक कथाओं की समझ नहीं थी। उनकी सोच डिस्ने की मार्वल वाले सुपरहीरो वाली थी, केवल सोच कॆ प्रेरणा सोत्र भारत के देवी देवता थे। इस वजह से मुझे लगा कि इसकी पटकथा लिखने वालों ने सुपरहीरो की भारतीय सोच निर्माण करने का मौका खो दिया।

कुछ लोगों ने इस गीत में अंग्रेज़ी शब्द जैसे कि "लव स्टोरी" पर एतराज किया था, जबकि मुझे लगा कि गीत के शब्द आजकल के शहरी वातावरण को सही दर्शाते थे। 

03 दिल बहल जाये - अभिषेख नेलवाल दवारा गाया और सगीतबद्ध किया यह गीत फ़िल्म "मुखबिर" से है और यह मुझे बहुत अच्छा लगा। नेलवाल साहब की आवाज़ बहुत सुंदर है। इसे लिखा वैभव मोदी ने है। इसका नारी वर्ज़न भी है जिसे रोन्किनी गुप्ता ने गाया है, वह भी बहुत सुंदर गाया है लेकिन मुझे नेलवाल का गाया बेहतर लगा। यह गाना सुन कर कुछ-कुछ  "बर्फी" फ़िल्म से "फ़िर ले आया दिल" याद आ जाता है। गीत के शब्द भी बहुत सुंदर हैं - "क्या पता फ़िर से यह सम्भल जाये, तेरे आने से दिल बहल जाये, सर्द आँखों से बुझ गयी थी कभी, कुछ ऐसा कर यह शमा जल जाये"।

02 ज़िन्द मेरिये - "जर्सी" फ़िल्म का यह गीत जावेद अली द्वारा गाया गया है। मैंने यह गीत पहली बार इस साल के प्रारम्भ में सुना और तबसे लगातार सुनता रहा हूँ, अभी तक थका नहीं। इसे लिखा है शैली ने और संगीत है सचेत-परम्परा का। "जर्सी" फ़िल्म के सभी गीत मुझे बहुत अच्छे लगे, लेकिन इस गाने के शब्दों में कुछ ऐसा है कि जो हर बार नया लगता है - "ज़िन्द मेरिये बार-बार खिलदा है ख्वाब एक इसनू मनावाँ, यह जो ख़ला है, ज़िद्द दी खिचदी, राह मैं इसनू दिखावाँ"। उस पर से इसकी धुन दिल को छू लेने वाली है। इस गीत को जितना सुनूँ मुझे उतना अच्छा लगता है।

01 सहर - "ऒम" फ़िल्म का यह गीत अरिजीत सिंह ने बहुत धीमे सुर में गाया है। एक-दो बार सुनें तो शायद वि़षेश न लगे, लेकिन इसका जादू धीरे-धीरे चढ़ता है। इसके बोल तूराज़ के हैं और संगीत आर्को का है। आर्को यानि प्रावो मुखर्जी स्वयं को लोक-कलाकार कहते हैं, इस सुंदर गीत के लिए उन्हें धन्यवाद व बधाई।

इस गाने में अरिजीत की आवाज़ रेशम जैसी है। और शब्द देखिये - "इस पल में ही ज़िन्दगी है, अब मुक्कमल हुआ सफर, दूर तक निगाहों को कुछ भी आता नहीं नज़र। रहें न रहें मेरी आँखें, ख्वाब तेरे रहेंगे मगर, ऊँचा रहेगा हमेशा फ़क्र में यह तेरा सर, और यही तो है मेरी सहर"। इस साल मैंने इस गीत को लूप पर बार-बार सुना है और गये वर्ष का यह मेरा सबसे प्रिय गीत रहा।

अंत में

वर्ष के कौन से गीत सबसे सुंदर हैं, इस बर बहुत बहस हो सकती है, क्योंकि यह सूची मेरी पसंद बताती है, आप की पसंद इससे बहुत भिन्न हो सकती है। खुद मेरे लिए भी एक से पाँच नम्बर वाले गाने छोड़ दें, तो बहुत से गानों में ऊपर-नीचे हो सकता है। जैसे कि मैंने इस सूची में रिमिक्स हुए गानों को नहीं चुना जबकि ऐसे कुछ गाने भी अच्छे आये (जैसे कि "मिस्टर मम्मी" फ़िल्म से अरमान कोहली और शिल्पा राव द्वारा गाया "चुपके चुपके")।

खैर, अगर आप को लगे कि आप के किसी बहुत मन पसंद गाने को इस सूची में न ले कर मैंने ज़ुल्म किया है तो नीचे टिप्पणी में बताईयेगा।

अंत में आप सबको नये वर्ष २०२३ की शुभकामनाएँ।

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मंगलवार, सितंबर 27, 2022

भारत के सबसे सुन्दर संग्रहालय

कुछ समय पहले भारत के अंग्रेज़ी अखबार फर्स्टपोस्ट पर रश्मि दासगुप्ता का एक आलेख पढ़ा था जिसका शीर्षक था "राष्ट्रीय संग्रहालय को बदलाव की आवश्यकता है"। इस आलेख की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार का दिल्ली के "राजपथ" पर नये भवनों का निर्माण है जिनमें राष्ट्रीय संग्रहालय भवन भी आता है। कुछ दिन पहले ही प्रधान मंत्री ने नये राजपथ का उद्घाटन किया था और इसे नया नाम दिया गया है, "कर्तव्यपथ"।

इस नवनिर्माण में आज जहाँ राष्ट्रीय संग्रहालय है वहाँ कोई अन्य भवन बनेगा और कर्तव्यपथ के उत्तर में जहाँ अभी नॉर्थ तथा साउथ ब्लाक में मंत्रालय हैं वहाँ पर यह नया संग्रहालय बनाया जायेगा। चूँकि दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय मेरे मनपसंद संग्रहालयों में से है, मैंने सोचा कि भारत के अपने मनपसंद संग्रहालयों के बारे में एक आलेख लिखना चाहिये। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से उन्नीसवीं शताब्दी की धनुराशि का एक शिल्प दक्षिण भारत से है।

National Museum, Delhi

संग्रहालयों की उपयोगिता

सतरहवीं से बीसवीं शताब्दियों में युरोप के कुछ देशों ने एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका महाद्वीपों के विभिन्न देशों पर कब्ज़ा कर लिया। क्योंकि उन देशों की भाषाएँ, वेषभूषाएँ, परम्पराएँ यूरोप से भिन्न थीं, इसलिए उनकी संस्कृतियों को नीचा माना जाता था। उन "पिछड़ी" सभ्यताओं के बारे में ज्ञान एकत्रित करने के लिए "मानव सभ्यता विज्ञान" यानि एन्थ्रोपोलोजी के विषेशज्ञ तैयार किये गये जो उन उपनिवेशित देशों में जा कर वहाँ के "जँगली" लोगों के बीच में रह कर उनके रहने, खाने, रीति रिवाज़, आदि विषयों का अध्ययन करते थे। उन देशों से लायी कीमती वस्तुएँ, जिनमें सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि के गहने थे, वह सब भी यूरोप पहुँच गये। उनकी कला व साँस्कृतिक धरौहरों के लिए संग्रहालय बनाये गये, जिनमें विभिन्न देशों से लायी वस्तुओं को रखा गया।

आज भी एशिया, अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका के विभिन्न देशों की बहुत सी साँस्कृतिक धरौहरें लँदन, पैरिस और एमस्टरडैम के संग्रहालयों में मिलती हैं। समय के साथ, नये स्वतंत्र हुए विकासशील देशों ने धीरे धीरे अपने संग्रहालय बनाने शुरु किये हैं। पहले जहाँ संग्रहालयों में वस्तुओं को अधिकतर कौतुहल का विषय मान कर रखा जाता था, उसमें बदलाव आया। धीरे-धीरे यह समझ बनी कि हर वस्तु को उसके साँस्कृतिक तथा सामाजिक अर्थ, इतिहास व परिवेश की पृष्ठभूमि के साथ ही समझा जा सकता है। डिजिटल तकनीकी के विकास ने संग्रहालयों को इंटरएक्टिव बना दिया जिससे दर्शकों को हर प्रदर्शित वस्तु के बारे में जानकारी पाने का एक नया माध्यम मिला।

स्वतंत्रता के बाद धीरे धीरे भारत के लोगों में अपनी प्राचीन सभ्यता के विषय में जानने की इच्छा बनी है, और पुरात्तव विभाग ने कई जगहों पर काम किये हैं। हमारे अधिकतर संग्रहालय पुरानी, धूल से भरी जगहें हैं, जो बिना समझ वाले बाबू लोगों द्वारा संचालित हैं, लेकिन साथ ही सुन्दर संग्रहालय बनाने के कुछ प्रयास हुए हैं। जैसे जैसे भारत विकसित देश बनेगा, देश की पुरातत्व संस्थाओं को और संग्रहालयों के बजट बढ़ेंगेतो इनमें और भी सुधार आयेगा। 

दिल्ली का राष्ट्रीय संग्रहालय

भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में लँदन में सन् 1947-48 में एक भारतीय कला प्रदर्शनी लगायी गयी थी, उस कला प्रदर्शनी के समाप्त होने के बाद उस प्रर्दशनी के लिए एकत्रित वस्तुओं से हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय की शुरुआत की गयी थी। जब तक राष्ट्रीय संग्रहालय का भवन बन कर तैयार नहीं हुआ था, तब तक सब सामान राष्ट्रपति भवन में रखा गया था।

मुझे हमारा राष्ट्रीय संग्रहालय बहुत अच्छा लगता है। मैंने यूरोप में कई संग्रहालय देखे हैं, मुझे यहाँ की प्रदर्शनी विदेशों के किसी भी संग्रहालय से कम नहीं लगती। दिल्ली में जब भी मौका मिलता है मैं राष्ट्रीय संग्रहालय में अवश्य एक चक्कर लगा लेता हूँ। संग्रहालय की गैलरियों में प्रदर्शित शिल्प, कला तथा आम जीवन की वस्तुओं में भारत के दो हज़ार वर्षों से अधिक इतिहास को देखा जा सकता है। नीचे की तस्वीर में राष्ट्रीय संग्रहालय से बाहरवीं शताब्दी की काकातीय शैली का त्रिदेव का शिल्प हैदराबाद के पास वारांगल से है।

National museum, Delhi

उत्तरी, पूर्वी, पक्षिमी, और दक्षिण भारत के भिन्न हिस्सों के विभिन्न युगों के इतिहासों को एक जगह पर ठीक से दिखाना चाहें तो आज के राष्ट्रीय संग्रहालय से दस गुना जगह भी शायद कम पड़ेगी। उसकी प्रदर्शित वस्तुएँ इतनी सुन्दर हैं कि मैं हर बार वहाँ कई घँटों तक घूमता रहता हूँ। सुना है कि नये भवन में संग्रहालय को अपनी प्रर्दशनियों के लिए अधिक और बेहतर जगह मिलेगी।

मेरे विचार में हर सप्ताह-अंत में, राष्ट्रीय संग्रहालय में जन सामान्य के लिए इतिहास, संगीत, धर्म, संस्कृति आदि के विषेशज्ञयों द्वारा संचालित गाईडिड टूर होने चाहिये ताकि लोगों को हमारे इतिहास के बारे में रुचि बढ़े और उन्हें किताबी समझ के दायरे से बाहर का ज्ञान मिले। उन्हें जनता के लिए फ़िल्मों तथा वार्ताओं के कार्यक्रम भी नियमित रूप से आयोजित करने चाहिये, जिनमें संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं के बारे में गहराई से जाना जा सके।

सहपीडिया का डिजिटल संग्रहालय

इंटरनेट तथा डिजिटल तकनीकी ने साईबरलोक में नई तरह के संग्रहालय बनाने का मौका दिया है। भारत में इसका सबसे बढ़िया नमूना है सहपीडिया में जिनके आरकाईव में भारत के राज्यों, लोगों के जीवन, धर्म, रीति रिवाज़ों, और साँस्कृतिक धरौहरों के बारे में आप को घर बैठे या खाली समय में बहुत सी जानकारी मिल सकती है जिसे किसी एक संग्रहालय में एकत्रित करना असंभव है।

मैंने उनके दिल्ली के दफ्तर में कई दिलचस्प वार्ताओं व सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। इस सब के साथ वह वर्कशॉप, तथा देश के विभिन्न शहरों में साँस्कृतिक महत्व की जगहों पर "हेरीटेज वॉक" का आयोजन भी करते रहते हैं।

उनके कुछ पृष्ठ हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में हैं, लेकिन बहुत सी सामग्री केवल अंग्रेज़ी में है। यही सहपीडिया की सबसे बड़ी कमज़ोरी है।

गुरुग्राम का संस्कृति संग्रहालय

दिल्ली के पास गुरुग्राम में, दिल्ली मैट्रो के अंजनगढ़ स्टेशन के पास आनन्दग्राम में एक अन्य सुन्दर संग्रहालय है, संस्कृति संग्रहालय। यह छोटा सा है लेकिन यहाँ भारत के विभिन्न राज्यों से आयी हुई जनजातियों द्वारा बनाई गयी मिट्टी की कला वस्तुओं का संग्रह मुझे बहुत अच्छा लगा। यह एक निजि संग्रहालय है जिसे श्री ओमप्रकाश जैन द्वारा बनवाया गया था।

संग्रहालय के तीन भाग हैं - आम जीवन में प्रयोग आने वाली वस्तुएँ, मिट्टी की कला यानि टेराकोटा (Terracotta) कला तथा बुनकर कला जिसमें भिन्न तरह के करघे पर बुने कपड़े (टेक्टाईल)हैं। नीचे की तस्वीर में गुरुग्राम के संस्कृति संग्रहालय से तामिलनाडू से कुप्पास्वामी का टेराकोटा शिल्प है जोकि भगवान आइनार की सेना के अधिपति हैं।

Sanskriti museum, Gurugram

संग्रहालय पहुँचने के लिए मैट्रोस्टेशन से कुछ किलोमीटर चलना पड़ता है। यह कठिनाई केवल इस संग्रहालय की नहीं बल्कि बहुत से संग्रहालयों की है - मेरी दृष्टि में कुछ जगहों पर जनपरिवहन का न होना इनके प्रबँधकों की लापरवाही भी दर्शाता है, जो शायद सोचते हैं कि अगर आप के पास अपनी कार या स्कूटर नहीं तो आप को संग्रहालय में दिलचस्पी नहीं होगी। कुछ कमी स्थानीय प्रशासन की भी है जिसे मैट्रो स्टेशनों पर वहाँ के आसपास के संग्रहालय व साँस्कृतिक संस्थानों के बारे में सूचना देनी चाहिये तथा वहाँ पहुँचने के लिए जनसाधनों का प्रबंध करना चाहिये।

केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय

केरल में कोची का जनजाति संग्रहालय भी एक निजि संग्रहालय है जोकि वहाँ के वास्तुशिल्प, कला, सभ्यता व संस्कृति से आप का परिचय कराता है। यह संग्रहालय लकड़ी के एक पारम्पिक तरीके के बने भवन में बनाया गया है। इस संग्रहालय में धार्मिक कला शिल्प के बहुत सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। नीचे की तस्वीर में कोची के जनजाति संग्रहालय में तमिलनाडू से सतरहवीं शताब्दी की लकड़ी की गरुण की मूर्ति का शिल्प है।

Folklore Museum, Kochi

इसी संग्रहालय में मैंने पहली बार उत्तरी केरल के कन्नूर जिले के आसपास की प्रचलित थैयम परम्परा के नमूने देखे जिनमें कुछ जनजातियों के लोग पाराम्परिक श्रृंगार और वस्त्र पहन कर देवी देवताओं को अपने शरीर में उतारते हैं। इनको देखने के बाद ही मुझमें कन्नूर जा कर वहाँ के गाँवों में थैयम पूजा को देखने की जिज्ञासा जागी, जोकि मेरे जीवन का बहुत रोमांचक अनुभव था।

नागालैंड में किसामा का हेरीटेज गाँव

नागालैंड के गाँवों में अधिकाँश जगहों पर ईसाई धर्म और आधुनिकता के साथ पाराम्परिक सँस्कृति, पुराने तरीके का रहन सहन, रीति रिवाज़ आदि लुप्त से हो रहे हैं। प्राचीन समय में विभिन्न नागा जातियों की अपनी विशिष्ठ परम्पराएँ, वास्तुशिल्प, पौशाकें होती थीं। नागालैंड की राजधानी कोहिमा से थोड़ी दूर किसामा साँस्कृतिक धरौहर गाँव है जहाँ नागा जनजातियों के घरों, पौशाकों तथा कलाओं को दिखाया गया है (नीचे की तस्वीर में)।


एक स्तर पर लगता है कि किसामा गाँव विभिन्न नागा जनजातियों के पाराम्परिक जीवन को दिखाने वाला खोखला ढाँचा सा है जिसमें सचमुच का जीवन नहीं है, लेकिन मेरे विचार में आने वाली नागा पीढ़ियों के यह महत्वपूर्ण है कि उनकी पश्चिमी सभ्यता की नयी पहचान के बीच में उनके सदियों के पुराने जीवन की कुछ यादें भी बची रहें।

हर वर्ष दिसम्बर में इस गाँव में एक संगीत तथा साँस्कृतिक समारोह होता है, जो होर्नबिल फेस्टीवल (Hornbill festival) के नाम से जाना जाता है और जिसमें नागा युवक व युवतियाँ अपने प्राचीन वस्त्र, रीति रिवाज़ों तथा परम्पराओं को याद करते हैं। इस समारोह के लिए दूर दूर से पर्यटक नागालैंड आते हैं।

गुवाहाटी का श्रीमंत शंकरदेव कलाक्षेत्र संग्रहालय

गुवाहाटी के "छह मील" नाम के क्षेत्र के पास पँजाबाड़ी में असमिया संगीतकार व कलाप्रेमी भूपेन हज़ारिका द्वारा स्थापित "कलाक्षेत्र संग्रहालय" में असम की साहित्य, नृत्य, कला, नाटक तथा जनजातियों से जुड़ी परम्पराओं को प्रदर्शित किया गया है। इस तरह कलाक्षेत्र केवल संग्रहालय नहीं है, यह कला, नृत्य और नाटकों से असम की जीवंत सँस्कृति से जुड़ा है। यहाँ केवल प्रदर्शनी देखने की जगह नहीं है, बल्कि वहाँ आप असम की सभ्यता को जी सकते हैं।

मेरा सौभाग्य था कि कुछ वर्ष पहले मुझे कलाक्षेत्र से थोड़ी दूर ही रहने का मौका मिला, जिससे कलाक्षेत्र जाने के बहुत मौके मिले। कलाक्षेत्र का जनजाति सभ्यता संग्रहालय छोटा सा है लेकिन बहुत सुन्दर है।

भक्तीकाल में असम में श्रीमंत शंकरदेव तथा अन्य संतो के द्वारा एक जातिविहीन, कृष्ण भक्ति पर आधारित एक नये तरह के हिन्दु धर्म की परिकल्पना की गयी थी, जिसकी नींव सादे जीवन पर टिकी थी। हिंदू धर्म के इस रूप का केन्द्र नामघर तथा सत्रिया होते हैं। कलाक्षेत्र में आप को इस नामघर संस्कृति को जानने और समझने का मौका भी मिलता है (नीचे की तस्वीर में)।

Namghar, Kalakshetra, Guwahati

कलाक्षेत्र के साथ ही शिल्पग्राम भी है जहाँ विभिन्न असमियाँ जनजातियों के घरों और गाँवों को दिखाया गया है जोकि किसामा के नागा गाँवों से मिलता है। यहाँ अक्सर प्रदर्शनियाँ लगती रहती हैं जहाँ आप गृहउद्योग तथा पराम्परिक हस्तकला को देख व खरीद सकते हैं।

भोपाल के राष्ट्रीय मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय

भोपाल का मानस संग्रहालय व जनजाति संग्रहालय मुझे बहुत प्रिय हैं। दो बार वहाँ जा चुका हूँ लेकिन अगर मौका मिले तो वहाँ अन्य दस बार लौटना चाहूँगा। मैंने बहुत दुनिया घूमी है और मेरे विचार में जनजातियों की सभ्यता व संस्कृतियों के बारे में यह दुनिया का सबसे सुंदर संग्रहालय है। नीचे की तस्वीर में छत्तीसगढ़ से राजवर जनजाति के जीवन को दिखाती एक कृति भोपाल के मानस संग्रहालय से।

Manas Sangrahalaya museum, Bhopal

मध्यप्रदेश की विभिन्न जनजातियों के आम जीवन की वस्तुएँ, उनके घर, वस्त्र, रीति रिवाज़, विभिन्न कलाओं, आदि से जुड़ी इन संग्रहालयों में इतनी वस्तुएँ हैं कि उनको देखने और समझने के लिए कई महीने चाहिये। सब कुछ इतने सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया गया है कि यहाँ घूम कर महीनों तक यहाँ के सपने आते रहते हैं।

अगर आप को भोपाल जाने का मौका मिले तो आप को इन दोनों संग्रहालय को अवश्य देखने जाना चाहिये।

अंत में

रश्मि दासगुप्ता नें अपने आलेख में लिखा है कि भारत में संग्रहालयों में जाने की परम्परा नहीं है। शायद यह बात सच है लेकिन मेरी राय में अगर लोगों को संग्रहालय में आकर्षित करने के लिए वस्तुओं को शीशे के डिब्बे से बाहर निकाल कर रखा जाये और लोगों को वहाँ सैल्फ़ी खींचने आदि से नहीं रोका जाये, तो धीरे धीरे अपनी संस्कृति को जानने समझने के बारे में जिज्ञासा बनायी जा सकती है। अगर संग्रहालय केवल वस्तुओं को दिखाने तक सीमित न रहें, उनमें पारम्परिक कला सीखने, फिल्म, नाटक व नृत्य देखने की सुविधाएँ हों, वहाँ के बारे में दिलचस्प तरीके से समझाने बताने वाले गाईड हों, वहाँ बैठने की जगहें हों जहाँ लोग चाय-कॉफ़ी पी सकें, जहाँ लोग छोटे बच्चों को ले कर आ सकें और जो जनपरिवहन सेवाओं से जुड़े हों, तो नयी पीढ़ी में संग्रहालय जाने की तथा देश की संस्कृति का महत्व समझने की परम्परा भी बन सकती है।

अधिकतर संग्रहालय सरकारी बाबू लोगों की निजी रियासतें जैसी होती हैं, जहाँ फोटो खींचना मना होता है और न ही उन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से कैसे दर्शकों को संग्रहालय से जोड़ा जाये की कोई जानकारी होती है। आज का युग मोबाईल फ़ोन का व सैल्फ़ी का युग है, अगर आप दर्शकों को संग्रहालयों में टिवटर, टिकटॉक, फेसबुक आदि पर सैल्फ़ी नहीं दिखाने देंगे तो बहुत से लोग वहाँ नहीं आयेंगे, विषेशकर नवजवान लोग। यह समझ निज़ी संग्रहालयों में अधिक है, इसलिए वह वस्तुओं को ऐसे रखते हैं ताकि लोग वहाँ फोटो खींचे और संग्रहालय के बारे में अपने मित्रों व जानकारों को दिखा सकें कि संग्रहालय में उन्होंने क्या क्या दिलचस्प चीज़ें देखीं, जिससे अन्य लोग भी वहाँ आना चाहें।

दूसरी बात है कि भारत में पुराने मन्दिर, मस्जिद, किले, राजमहल, भग्नावषेश, बहुत हैं जो कि खुले संग्रहालय जैसे हैं, उनके सामने कमरों में बन्द सँग्रहालय कम दिलचस्प लगते हैं। जैसे कि एक बार हम्पी या महाबलिपुरम के भग्नावषेशों के बीच घूम लें तो उनके संग्रहालयों में वह आनन्द नहीं मिलता। इसलिए यह कहना की लोगों में संग्रहालय जाने की परम्परा नहीं है, शायद संग्रहालयों की कमियों को न देख पाना है।

आशा है कि आप को मेरे प्रिय भारतीय संग्रहालयों का यह टूर अच्छा लगा होगा। क्या आप की दृष्टि में भारत के किसी अन्य राज्य में कोई अन्य संग्रहालय है जो आप को बहुत अच्छा लगता है और जिसे इस सूची का हिस्सा होना चाहिये था? मुझे इसके बारे बताईयेगा, ताकि मैं अगर उस तरफ़ जाऊँ तो उसे अवश्य देखने जाऊँ।


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इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख